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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ३८५ किया और दर्शनसाहित्य, आदि में पारंगत होकर सं० १६८२ में ये फतेहपुर (शेखावाटी) लौट आए । फतहपुर की एक गुफा में ये फिर अपने छः साथियों के साथ बारह वर्षों तक योगाभ्यास की साधना करते रहे और संयम एवं स्वाध्याय में लगे रहे । इसके अन्तर इन्होंने पूर्व की ओर बंगाल से लेकर पश्चिम की ओर द्वारका तक तथा उत्तर के बदरिकाश्रम से लेकर दक्षिण में मध्य प्रदेश तक देशाटन करते रहे और अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त कर उसके अनुसार काव्य-रचना में भी प्रयत्नशील रहे । अंत में, कई स्थानों पर कुछ अधिक दिनों तक निवास करने के अन्तरये सांगानेर चले गए जहां सं ० १७४६ में इनका देहांत हो गया । सुंदरदास अपने अंतिम समय तक एक उच्चकोटि के संत एवं महा- पुरुष के रूप में प्रसिद्ध हो चले थे और इनके कई शिष्य भी हो गए थे । इन्होंने कुल छोटेबड़े मिला कर ४२ ग्रंथों की रचना की थी जिनका एक सुसंपादित संग्नल ‘सुंदरग्रंथावली' के नाम से प्रकाशित हो चुका है । इनके दो बड़ेबड़े ग्रंथ 'ज्ञान समुद्र’ और ‘सुंदर बिलासहैं जिनमें से प्रथम में प्रधानतः नवधाभक्ति, अष्टांगयोग, सेश्वर सांस्य तथा अठंतमत का पांडित्यपूर्ण निरूपण किया गया है और द्वितीय में ५६२ छंदों द्वारा अनेक विषय प्रतिपादित हुए हैं । इनकी रचनाओं में अधिक तर दार्शनिक विषयों का ही समावेश है किंतु इनके भाषाधिकार एवं काव्य कौशल के कारण वे रोचक हो गए हैं । अपनी विद्वता में ये अपने गुटे भाई रज्जबजी से भी बड़े-खड़े थे और साहित्यिक प्रवीणता भी इनमें उनसे अधिक थी । फिर भी रज्जबजी की आध्यात्मिक अनुभूति कुछ अधिक गहरी जान पड़ती है और अपनी सूफ़ी यानी मस्ती के कारण वे इनसे अपने गुरु संत दादू दयाल , कुछ अधिक अनुरूप समझ पड़ते हैं। सुंदर दास में बुद्धि का चमत्कार और कला पुष्य अधिक स्पष्ट है जहां रज्जबजी की एक-एक उक्ति के पीछे उनके हृदय का लगाव सर्बन क्षित होता है । दों की विविधता न दोनों संतों की रचनाओं