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३६८ संत-काठप वृक्ष को सींचकर प्रेमाभक्ति का फल प्राप्त करने की ओर निम्न लिखित १ साथियों द्वारा संकेत किया है। साखी सार सार मत ग्रवण सुनि, सुनि राष रिद माह। लाहोको सुनिबौ सुफलतुरसो तपति सिह ११। सुरसी ब्रह्म भावना यहै, नांब कहावं सोय। यह सुमिरन संतन कहासारभूत संजोय क२। तुरसी तेज पुंज के चरन दे, हाडु चास के नाह। वेद पुरानन बरनिएरिदा कंल के मांहि 1३। तुरसिदास तिहूँ लोक , सिरसा (प्रतिमा) कार। बाधक निरॉन ब्रह्माक, बेदनि बरन्थो सार।४। गुरु गोविंद सतनि विधेअभिम भाव उपजाय। मंगलवू बंदन करे, तौ पायन रहई काम ५। शुरसो बने न दासौ, आलस एक लगार। हरिझुरु सा सेव , लगा रहे यकतार ।६। बराबरी को भाव न जाने, शुभम औ.म ताको कस्कू न आनं। अपनो सिंत जानिबो रामताहि समरसे अपना घाम ॥७। शुरसी तन मन मातमा, करह समरपस रम। जाको ताहि दे उरन होढ़, छाड़िहू सकल सकॉम ८। सुरसी यह साधन भगति, तरल सोंची सोय। तिन प्रेमा फल पाइया, प्रेम खित फल जोय 11 बहरा पुलिस वानी सुने, सुरता सूने न कोय। सुरस सो बानी अवद, सुख बिन उपजे सोय1१०॥ बिन पग उठ तरबर चढ़, सपये चढा न जाय। सुरसी पोती जग मौ, अँधे दरसाय।११। द्रति में अमू एति बसुअनल ऑतमा राम। तुरसी आम बिसरायकेताही को ले नाम है१२।