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३३९ मध्ययुग (एबद्ध ) अनवर किया करते और मूने । उनमें नयी भी ला देते हैं इनकी भाषा प्रव्ापूर्ण है और इनकी रचनाओं में इनके निजी अनुभव का भी संमा बेटा दोन्न पड़ता है । । छपय बह अविमति गति अमित अराम मनभेष अषडित । पबिहर अमर अनूप अरुचि प्रारूप श्रमंडित ॥ निल निगह निरंग निगम निहसंग गिरनन । निज निरबन्ध निरसंध निधर निरमोह निचिन्तन ! जगजीवन जगदीश जपि नारायन रंजक सर्कल। भुद-धारन भब दुलहरम भलु जन भीध अनंतबल ११. नाहि पुष्प जिसिम बास प्रगट लिमि बसे निरंतर । ज्यों तिलयिन में तेल मेल यों नाहिल अंतर ॥ ज्य पथ झूत संजोग संक्ल यों है सम्पून । क्राध्ठ अगनि प्रसंग प्रगट कोये कहूं दूर न । ज्य दर्षण प्रतिविम्ब में होत जह बिश्रम है । सकल चियापी भीषजन प्रसे घटि घटि राम है ।२। इक सरवर तजि सोन कैसे सुष पाबत । बायप्स वोहिथ छादि फिर फिर तासुहैि अवत ' संध भोति की दर डर बिन कहां समाबत है उर्ड पंप बिन जाहि तो धरती फिर भारत ॥ पात सचियत पड़े बिन पोय नह दुम ताहि कौ । से हरि बन भीषजम भरे उ हूजा काहिक 1३। दघ वृक्ष नह नवं नवें सु प्राहि सु फलतर । ताहि कसौटी काष सच के सह हेमवर ।। विद्म घात न चोट धात सो हर चोट आति । पाहन भिई न नीर भिई सेंधव कोमल मति से