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संगठित रूप में आरंभ हुआ और दक्षिण से लेकर उत्तर तक बड़े वेग के साथ फैलने लगा। इसके मूल सिद्धांत उक्त आचार्यों द्वारा निर्मित भाष्यों के अतिरिक्त विष्णु पुराण एवं पाँचरात्र संहिताओं पर भी बहुत कुछ आश्रित थे। इसकी विविध साधनाएँ वैधमार्गों का अनुसरण करती थीं। वैष्णव धर्म की रागानुगाशाखा का प्रचार कुछ आगे चलकर आरम्भ हुआ जब 'श्रीमद्भागवत' को अधिक महत्व दिया जाने लगा और प्रेममूलक भक्ति का उपदेश दिया जाने लगा। विक्रम की १२वीं शताब्दी के ही लगभग यहाँ पर उस नये विदेशी धर्म का भी संगठित प्रचार आरम्भ हुआ। जिसका नाम 'मजहबे इस्लाम' था और जिसे तत्कालीन मुस्लिम शासकों की राजकीय सहायता भी उपलब्ध थी। इसकी अधिकांश बातें भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के प्रतिकूल पड़ती थीं और यह एक आक्रामक के भी रूप में अग्रसर होता जा रहा था। अतएव, भारतीय समाज को इसके कारण विवश होकर अपने आचार एवं संगठन के नियमों में अनेक परिवर्तन करने पड़ गए। बौद्ध धर्म इसके बहुत पहले से ही तांत्रिक एवं योग क्रियामूलक रूप ग्रहण कर चुका था और नाथ-संप्रदाय के साथ-साथ हिंदू धर्म के विस्तृत सागर में क्रमशः लीन होता जा रहा था। उत्कल एवं महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों की विचित्र परिस्थितियों ने तो उन्हें यहाँ तक प्रभावित किया कि वहाँ के वैष्णवों से इनके सहजयानियों तथा नाथ-जोगियों का कोई विशेष अंतर ही नहीं रह गया। फलतः उत्कल एवं बंगाल के तत्कालीन वातावरण ने इधर संत जयदेव को उत्पन्न किया और महाराष्ट्र की परिस्थितियों के अनुसार उधर वारकरी संप्रदाय चल निकला जिसके संत नामदेव अपने उत्तरकालीन कबीर साहब अदि के आदर्श बन गए।

संत-परंपरा

कबीर साहब जैसे संतों की परंपरा का सूत्रपात विक्रम की १५वीं