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प्रारंभिक युग

उनका कबीर साहब का समकालीन होना तथा, उन्हीं की भांति, स्वा॰ रामानंद का शिष्य भी होना अनुश्रुति के आधार पर माना जाता है। कबीर साहब का नाम इन्होंने सेना नाई, नामदेव एवं सधना के साथ-साथ प्रसिद्ध होकर तर जाने वालों में, लिया है जिसके आधार पर इन्हें हम उनके पीछे तक जीवित रहने का अनुमान कर सकते हैं। इस प्रकार इनका जीवन काल विक्रम की १५वीं से १६वीं शताब्दी तक पहुँचता है। रैदासजी काशी में रहकर अपना पैतृक व्यवसाय करते थे और एक निस्पृह, उदार एवं संतोषी व्यक्ति थे। इनका भगवदा्नुराग इनके बचपन से ही संत्संगादि द्वारा प्रकट होता आया था और आगे चलकर ये एक बहुत बड़े महात्मा के रूप में प्रसिद्ध हो गए। कहा जाता है कि मेवाड़ की 'झालीरानी' ने इनसे प्रभावित होकर इनकी शिष्यता स्वीकार कर ली थी। मीरांबाई ने भी इन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया है, किंतु उनका इनके समय में होना प्रमाणित नहीं होता। इसी कारण, अनुमान किया जाता है कि उन्होंने इनका नाम अपनी रचनाओं में किसी रैदासी संत के लिए लिया होगा।

रैदासजी की रचनाएं केवल फुटकर रूप में ही मिलती है और उनका कोई पूरा प्रामाणिक संग्रह अभी तक उपलब्ध नहीं है। 'आदि ग्रंथ' में आये हुए उनके पदों की संख्या लगभग ४० है और 'बैलवेडियर प्रेस' के संग्रह में कुछ नये पद भी मिलते हैं। इन दो संग्रहों के पदों में पाठ-भेद बहुत अधिक दीख पड़ता है और इसका अंतिम निर्णय प्रामाणिक हस्तलेखों पर ही निर्भर है। रैदासजी की रचनाओं की विशेषता उनमें लक्षित होने वाली सरल हृदयता एवं दैन्य तथा गहरे भगवत्प्रेम में पायी जाती है। उनका आत्मनिवेदन बहुत ही सुंदर, स्पष्ट तथा हृदयग्राही है और उनकी भक्ति का रूप प्रेम के रंग में सराबोर दिखलाई देता है। उनकी उपलब्ध रचनाओं के अंतर्गत हमें अन्य संतों की 'जोग