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संत-काव्य

दूर हो जाने के कारण, एकनिष्ठ हो गया। ६३. मरनै...मरे = जो जीवन्मुक्त हो जाय। अजरावर = अजर तथा अमर। ६६. बधिक = शब्द का बाण मारने वाले सद्गुरु। ६७. आगि प्रपंच की कठिनाइयों में। ६८. मुराड़ा = जलती हुई लकड़ी वा लुआठा। ६९. धणी = स्वामी। खेत = संग्राम के क्षेत्र को। ७०. मरने = संसार की ओर से पूर्णतः विरक्त हो जाने अथवा आँखें मूंद लेने। ७१. (दे॰ "ध्रुव ते ऊंच पेम धुव = ऊचा। सिर देइ पाँच देइ सो छूआ"—जायसी, 'ग्रंथावली', पृष्ठ ५४)। ७२. जेते...मुझ= मेरे शत्रु संख्या में अनगिनत क्यों न हों। घड़...कंगुरै = मेरा धड़ सूली पर हो तथा मेरा सिर किसी दुर्ग के उच्चतम भाग पर क्यों न टांग दिया गया हो। तऊ = फिर भी मैं दृढ़तापूर्वक कह रहा हूं कि।

कबीर हरि सबकूं भजै, हरिकूं भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ॥७३॥
मालन आवत देखि करि, कलियां करी पुकार।
फूले फूले चुणि लिए, काल्हि हमारी बार॥७४॥
बाढ़ी आवत देखि करि, तरदर डोलन लाग।
हंम कटे को कुछ नहीं, पंखेरू घर भाग॥७५॥
फागुण आवत देखि करि, बन रूंना मन माहि।
ऊंची डाली पातहै, दिन दिन पीले थांहि ॥७६॥
जो ऊग्या, सो आँथवै, फुल्या सो कुमिलाइ।
जो चिणियाँ सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ॥७७॥
कबीर हरि सूं हेत करि, कूड़ैं चित्त न लाव।
बांध्या बार षटीक कै, ता पसु किती एक आव॥७८॥
काची काया मन अथिर, थिर थिर काम करंत।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै, त्यूं त्यूं काल हसंत॥७९॥
जिनि हम जाए ते मुए, हम भी चालण हार।
जे हमको आगैं मिले, तिन भी वंध्या भार॥८०॥