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संत-काव्य

 

(५५)

मुक्ति-महत्त्व

सरवर तट हंसणी तिसाई।
जुगति बिना हरिजल पिया न जाई॥टेक॥
पीया चाहै तौलै खरा सारी, उड़ि न सकै दोऊ पर भारी॥१॥
कुंभ लीयै ठाढी पनिहारी, गुण बिन नीर भरैं कैसे नारी॥२॥
कहैं कबीर गुर एक बुधि बताई, सहज सुभाइ मिले राम राई॥३॥

सरवर...तिसाई = आत्मा की हंसिनी हृदय सरोवर के रहते हुए भी अतृप्त बनी है। जुगत = सतगुरु की बतलायी युक्ति। पीया....सारी = हरिरस पीने की इच्छा से वह उड़ान भरने का प्रयत्न करती है अर्थात् प्राणों को उधर उन्मुख किया जाता है। कुंभ नारी = आत्मा को पनिहारिन काया का कुंभ लिए नाम रस भरना चाहती हैं किंतु सुरति की डोरी के बिना वह कुछ कर नहीं पाती। बुधि = युक्ति।

(५६)

अज्ञान का प्रभाव

काहे री नलनी तूं कुमिलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥टेक॥
जल मैं उतपति जलमैं वास, जलमें नलती तोर निवास॥१॥
न तलि तपति न ऊपर आगि, तोर हेत कछु कासनि लागि॥२॥
कहै कबीर जे उदिक समान, ते नहीं भूए हमारे जान॥३॥

काहेरी...पानी = अरी आत्मा की कमलिनी तू क्यों सूखती जा रही। सरोवर का जल तो तेरे पास ही विद्यमान है। तलि = नीचे। तपति = गर्मी वा ज्वाला। तोर लागि = तेरा किसी के साथ प्रेम सम्बन्ध तो नहीं हो गया है? उविक समान = जिन्होंने 'राम उदक' में प्रवेश पा लिया (दे॰ 'राम उदकि मेरी तिखा बुझांगी', आ॰ ग्रं॰ राग गउड़ी, १।