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संत-काव्य


करन = कूड़े वा घूर पर। तुरे = शीघ्रगामी। सुवेदी = स्वच्छ श्वेत चादर से आच्छादित। पैआरु = पयाल, तिनकों का बिछौना।

स्वामी रामानन्द

स्वामी रामानन्द के जन्म का सं॰ १३५६ में होना और उनका सं॰ १४६७ में मर जाना प्रायः सभी विद्वानों ने स्वीकार कर लिया है। उनका जन्म-स्थान प्रयाग था और वे ब्राह्मणों के कान्यकुब्ज वंश में उत्पन्न हुए थे। पढ़ने के लिए कभी गये थे जहाँ पर शांकराद्वैत मत के प्रभाव में शिक्षा प्राप्त कर, अंत में, प्रसिद्ध विशिष्टाद्वैती स्वा॰ राघवानंद के शिष्य हो गए। परन्तु कहीं से तीर्थ यात्रा करके लौटने पर, आचार संबंधी कुछ मतभेदों के उत्पन्न हो जाने के कारण, उन्होंने अपने गुरु से अलग होकर एक नवीन मत का प्रवर्तन किया जो 'रामावत संप्रदाय' कहलाता है। स्वा॰ रामानन्द एक स्वाधीनता महापुरुष थे और इनके चरित्र बल एवं असाधारण व्यक्तित्व के कारण, एक नवीन जागृति दीख पड़ने लगी। प्रसिद्ध है कि उनके शिष्यों में विशुद्ध रामावती अनंतानंद, सुखानंद के अतिरिक्त कबीर, पीपा तथा रैदास जैसे व्यक्ति भी सम्मिलित हो गए और उन्होंने उनके अनंतर उनके मत के प्रचार में पूरा प्रयत्न कर उनके महत्त्व को और भी बढ़ा दिया। स्वा॰ रामानंद का स्थान, उत्तरी भारत की संत-परंपरा के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण है और उन्होंने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष रूप से, प्रायः सभी तात्कालीन भक्तों तथा संतों को प्रभावित किया है।

उनकी रचनाओं में कुछ संस्कृत की बतलायी जाती है और केवल दो का अभी तक हिंदी पदों के रूप में होना स्वीकार किया जाता है। इनमें से सिक्खों के 'आदि ग्रंथ' में केवल एक ही संगृहीत है और उसीकी प्रामाणिकता में कोई सन्देह नहीं किया जाता। यह दूसरा पद, वास्तव में, एक सुंदर रचना है और इसमें उनके विचार-स्वातंत्र्य एवं हृदय की सचाई के भाव बड़े अच्छे ढंग से व्यक्त किये गए हैं।