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होने के कारण अपने आप किंतु किसी कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त हुआ हो और जो अपने उदात्त भावों के कारण, आनंद के साथ-साथ मानव जीवन की प्रगतिशीलता में सहयोग भी प्रदान कर सकता हो।

परन्तु उपर्युक्त सभी गुणों से युक्त काव्य कोई आदर्श कृति ही कही जा सकती है जिसके उदाहरण भी बहुत कम मिल सकेंगे।ऐसी दशा में सारे बहुमान्य काव्यग्रंथों में से अधिकांश को हमें उनसे पृथक कर देना पड़ेगा और उन्हें किसी अन्य कोटि की रचनाओं में स्थान देना होगा। मानव समाज द्वारा प्रयुक्त वाक्यसमूह आज तक पद्य-गद्य नामक दो भिन्न-भिन्न रूपों में दीख पड़ते आए हैं जिनमें से प्रथम का प्रयोग हमारे बाङ्मय के अंतर्गत द्वितीय से कदाचित् कुछ कहले आरंभ हुआ था और उसी की उत्कृष्ट रचनाओं को स्वभावतः काव्य की संज्ञा देने की प्रथा भी पहलेपहल चली थी। फिर पद्य के वैसे उदाहरणों की ही मुख्य-मुख्य विशेषताएँ काव्य के लक्षण समझी जाने लगीं और वे हो उसका मानदंड भी बन गईं। पीछे आने वाले कवियों ने उन्हीं को अपने सामने रखकर अपने काव्यग्रंथों की रचना की और अपने-अपने समाज में ख्याति एवं धन भी उपार्जित किया। उक्त उत्कृष्ट पद्यों का चुनाव किसी समाज में उसके सहृदय व्यक्ति की रुचिविशेष के आधार पर ही होता रहा। इसी कारण देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार उक्त मान्य लक्षणों का बहुत कुछ भिन्न-भिन्न हो जाना भी स्वाभाविक था। काव्य की विविध परिभाषाओं में दीख पड़ने वाली उपर्युक्त विभिन्नताएँ भी संभवत: इसी कारण आ गई होंगी। किसी एक परिभाषा को स्वीकार कर लेने में हमें आजकल कुछ कठिनाई भी जान पड़ती है।

इसके सिवाय भरत मुनि के समय से लेकर आज तक मानव-समाज में अनेक परिवर्तन भी हो चुके हैं। भिन्न-भिन्न देशों की