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संत-काव्य

जाती है। फिर भी उनकी अधिकांश रचनाएं राग गौड़ी, राग बिलावल, राग सोरठ, राग बसंत, राग सारंग तथा राग धनाश्री के अंतर्गत पड़ती हैं और इनके अनंतर राग भारू, राग भैरव, राग टोड़ी, राग असावरी, राग रामकली तथा राग मलार के नाम आते हैं। अन्य प्रमुख रागों में राग कल्याण, राग कान्हडा, राग केदारा तथा राग नट वा नट नारायण के भी नाम लिये जा सकते हैं। संग्रहों में राग सावन, राग होली, राग हिंडोला, राग रेखता जैसे कुछ नाम भी आते हैं जो कदाचित् उक्त ढरें के अनुसार ही आ गए हैं। कुछ संतों ने ऐराकी और बैत जैसे एकाध नामों के भी प्रयोग किए जो विदेशी जान पड़ते हैं और तुलसी साहब की रचनाओं के अंतर्गत ख्याल, तिल्लाना, ध्रुपद, टप्पा, ठुमरी, लावनी आदि के भी उदाहरण संगृहीत किये गए हैं। इस प्रकार के गीतों एवं गजलों तक की रचना आधुनिक संतों ने आरंभ किया और गंभीर पदों की रचना का महत्त्व उस समय से क्रमशः घटता चला गया। रागों के शीर्षकों में किया गया पदों का संग्रह सत्तनामियों तथा सत्संगियों की पुस्तकों में नहीं दीख पड़ता। वे, तथा अन्य अनेक संत भी, पदों को 'शब्द' कह कर ही पुकारना, कदाचित् अधिक अच्छा समझते हैं। फिर भी वे शब्द भजन के रूप में बराबर गाये जाते हैं। साधुओं के संबंध में कहा जाता है "साँझ को राग सकारे गावै। सो साधु मोरे मन भावें" 'अर्थात् साधुओं संतों का अपने पदों वा भजनों का अनियमित रूप से गान करना उनकी एक विशेषता ही समझो जाती है। गाये जाने वाले पद वा भजन अपने रचयिताओं की अनुभूतियों अथवा उपदेशों के भाव व्यक्त करते हैं और उन्हें गाने वाले उनमें तल्लीन होने की अपनी मस्ती प्रकट करते हुए जान पड़ते हैं। पदों के शुद्ध रूप, उनको गाते समय महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले सांगीतिक नियमों का यथावत् पालन अथवा अन्य ऐसी बातों की ओर ध्यान देना वे बहुत आवश्यक नहीं समझते। संतों के ऐसे अनेक पदों की रचना के समय भी