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तरी रचनाका नहीं अन्त पार है। जगदीश०
करुनानिधि, विश्वभरण, शरणागत तापहरण,
सच चित सुख रूप सदा निरविकार है। जगदीश०
निरगुन सब गुन निधान निगमागम करत गान,
सेवक नमन करत बार बार है। जगदीश०


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