यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
संग्राम

३०२

जोत चमक रही थी। ग्लानि उत्पन्न हुई कि मैंने इस कुमार्गपर पैर न रखा होता तो यह देवी क्यों लज्जा और शोकसे आत्महत्या करती। उनके मनने कहा, तुम्हीं हत्यारे हो, तुम्हींने इसकी गरदनपर छुरी चलाई है। इसी ग्लानिकी दशामें उनको विदित हुआ कि इन सारी विपत्तियों का मूल कारन मेरी संपत्ति है। यह न होती तो मेरा मन इतना चंचल न होता। ऐसी सम्पत्ति ही को क्यों न त्याग दूं जिससे ऐसे-ऐसे अनर्थ होते हैं। मैं तो बखानूंगी उस दुधमुंहे अचलसिंहको जो ठाकुर साहबके मुंहसे बात निकलते ही सब कोठी, महल, बाग-बगीचा त्यागनेपर तैयार हो गया। उनके छोटे भाई कञ्चनसिंह पहले हीसे भगवत-भजनमें मगन रहते थे। उनकी अभिलाषा एक ठाकुरद्वारा और एक धर्मशाला बनवाने की थी। राजभवन खाली हो गया। उसीको धर्मशाला बनायेंगे। घरमें सब मिलाकर कोई पचास साठ हजार नगद रुपये थे। हवागाड़ी, फिटिन, घोड़े, लकड़ी के सामान, झाड़-फन्नूम, पलंग, मसहरी, कालीन, दरी, इन सब चीजोंके बेचनेसे पचीस हजार मिल गये, दस हजारके ज्ञानीदेवीके गहने थे। वह भी बेच दिये गये। इस तरह सब जोड़कर एक लाख रुपये ठाकुरद्वाराके लिये जमा हो गये। ठाकुरद्वारेके पास ही ज्ञानीदेवीके नाम का एक पक्का तालाब बनेगा। जब कोई लोभ ही न रह गया तो जमींदारी