संग्राम
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थे, जिस कल चाहती थी उठाती थी, जिस कल चाहती थी बैठाती थी। उस धूर्त्त साधुको पाऊँ तो सैकड़ों गालियाँ सुनाऊँ, मुँह नोच लूँ। अब तो मेरी दशा उस बिल्लीकी सी है जिसके पंजे कट गये हों, उस बिच्छूकीसी जिसका डङ्क टूट गया हो, उस रानीकी सी जिसे राजाने आँखोंसे गिरा दिया हो।
चम्पा—अम्माँ चलो, रसोई तैयार है।
गुलाबी—चलो बेटी, चलती हूं। आज मुझे ठाकुर साहबके घरसे आनेमें देर हो गई। तुम्हें बैठने का कष्ट हुआ।
चम्पा—(मनमें) अम्माँ आज इतने प्यारसे क्यों बातें कर रही हैं; सीधी बात मुंहसे निकलती ही न थी। (प्रगट) कुछ कष्ट नहीं हुआ, अम्माँ, कौन अभी तो ९ बजे हैं।
गुलाबी—भृगुनाथने भोजन कर लिया है न?
चम्पा—(मनमें) कल तक तो अम्माँ पहले ही खा लेती थीं बेटेको पूछती तक न थीं, आज क्यों इतनी खातिर कर रही हैं (प्रगट) तुम चलकर खालो, हम लोगोंको तो सारी रात पड़ी है।
(गुलाबी रसोई में जाकर अपने हाथोंसे पानी निकालती है।)
चम्पा—तुम बैठो अम्माँ, मैं पानी रखे देती हूं।
गुलाबी—नहीं बेटी, मटका भरा है, तुम्हारी आस्तीन भींग जायगी।
चम्पा—(पंखा झलने लगती है) नमक तो ज्यादा नहीं हो