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पांचवां अङ्क

२७९

(हीरेकी कनी खा लेती है)

राजे०—रानीजी आप देवी हैं, वह पतित हो गये हों पर आपका चरित्र उज्ज्वल रत्न है। आप क्यों क्षोभ करती हैं।

ज्ञानी—बहिन, कभी यह घमण्ड था, पर अब नहीं है।

(उसका मुख पीला होने लगता है और पैर लड़खड़ाते हैं)

राजे०—रानीजी कैसा जी है?

ज्ञानी—कलेजेमें आग सी लगी हुई है। थोड़ासा ठंढा पानी दो। मगर नहीं, रहने दो। जबान सूखी जाती है। कंठमें कांटे पड़ गये हैं। आत्मगौरवसे बढ़कर कोई चीज नहीं। उसे खोकर जिये तो क्या जिये।

राजे०—आपने कुछ खा तो नहीं लिया?

ज्ञानी—तुम आज ही यहांसे चली जाव। अपने पति के चरणोंपर गिरकर अपना अपराध क्षमा करा लो। वह वीरात्मा हैं। एक बार मुझे डाकुओंसे बचाया था। तुम्हारे ऊपर दया करेंगे। ईश्वर इस समय उनसे मेरी भेंट करवा देते तो मैं उनसे शपथ खाकर कहती, इस देवी के साथ तुमने बड़ा अन्याय किया है। वह ऐसी पवित्र है जैसे फूलकी पंखड़ियोंपर पड़ी हुई ओसकी बूंदें या प्रभात कालकी निर्मल किरणें। मैं सिद्ध करती कि इसकी आत्मा पवित्र है............

(पीड़ासे विकल होकर बैठ जाती है)