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तृतीय दृश्य

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(स्थान—राजेश्वरीका कमरा, समय—३ बजे रात, फानूस जल
रही है, राजेश्वरी पानदान खोले फर्शपर बैठी है।)

राजेश्वरी—(मनमें) मेरे मनकी सारी अभिलाषाएं पूरी हो गईं। जो प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा हो गया। जीवन सफल हो गया। अब जीवनमें कौनसा सुख रखा है। विधाताकी लीला विचित्र है। संसारके और प्राणियोंका जीवन धर्म्मसे सफल होता है। अहिंसा ही सबकी मोक्षदाता है। मेरा जीवन अधमसे सफल हुआ, हिंसासे ही मेरा मोक्ष हो रहा है। अब कौन मुँह लेकर मधुबन जाऊँ, मैं कितनी ही पतिव्रता बनूँ, किसे विश्वास आयेगा? मैंने यहाँ कैसे अपना धर्म निबाहा, इसे कौन मानेगा।

हाय! किसकी होकर रहूंगी। हलधरका क्या ठिकाना। न जाने कितनी जानें ली होगी, कितनोंका घर लूटा होगा, कितनोंके खूनसे हाथ रंगे होंगे, क्या-क्या कुकर्म किये होंगे।