यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

चौथा अङ्क

२६३

(हाथसे पिस्तौल छीन लेता है)

सबल—(अचम्भेसे) कौन?

हलधर—मैं हूँ हलधर।

सबल—तुम्हारा काम तो मैं ही किये देता था। तुम हत्यासे बच जाते। उठा लो पिस्तौल।

हलधर—आपके ऊपर मुझे दया आती है।

सबल—मैं पापी हूं। कपटी हूँ। मेरे ही हाथों तुम्हारा घर सत्यानास हुआ। मैंने तुम्हारा अपमान किया, तुम्हारी इज्ज़त लूटी, अपने सगे भाईका वध कराया। मैं दयाके योग्य नहीं हूँ।

हलधर—कंचन सिंहको मैंने नहीं मारा।

सबल—(उछलकर) सच कहते हो?

हलधर—वह आप ही गंगामें कूदने जा रहे थे। मुझे उनपर भी दया आ गई। मैंने समझा था आप मेरा सर्वनाश करके भोगविलासमें मस्त हैं। तब मैं आपके खूनका प्यासा हो गया था। पर अब देखता हूँ तो आप अपने कियेपर लज्जित हैं, पछता रहे हैं, इतने दुःखी हैं कि प्राणतक देनेको तैयार हैं। ऐसा आदमी दयाके योग्य है। उसपर क्या हाथ उठाऊँ।

सबल—(हलधरके पैरोंपर गिरकर) तुमने कंचनकी जान बचा ली। इसके लिये मैं मरते दमतक तुम्हारा यश मानूंगा। मैं न जानता था कि तुम्हारा हृदय इतना कोमल और उदार है।