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दूसरा दृश्य

(स्थान—सबलसिंहका कमरा, समय—१० बजे दिन।)

सबल—(घड़ीकी तरफ देखकर) १० बज गये। हलधरने अपना काम पूरा कर लिया। वह ९ बजेतक गंगासे लौट आते थे। कभी इतनी देर न होती थी। अब राजेश्वरी फिर मेरी हुई। चाहें ओढ़ूं, बिछाऊं या गलेका हार बनाऊं। प्रेमके हाथों यह दिन देखनेकी नौबत आयेगी, इसकी मुझे जरा भी शंका न थी। भाईकी हत्याके कल्पनामात्रसे ही रोएं खड़े हो जाते हैं। इस कुलका सर्वनाश होनेवाला है। कुछ ऐसे ही लक्षण दिखाई देते हैं। कितना उदार, कितना सच्चा! मुझसे कितना प्रेम, कितनी श्रद्धा थी! पर हो ही क्या सकता था। एक म्यानमें दो तलवारें कैसे रह सकती थीं। संसारमें प्रेम ही वह वस्तु है जिसके हिस्से नहीं हो सकते। यह अनौचित्यकी पराकाष्ठा थी कि मेरा छोटा भाई जिसे मैंने सदैव अपना पुत्र समझा मेरे साथ यह पैशाचिक व्यवहार करे। कोई देवता भी यह अमर्य्यादा नहीं कर सकता था। यह घोर