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साथ न लिया। मैं स्त्रियोंसे अलग-अलग रहता था, इन्हें जीवनका कांटा सममता था, उनके बनाव-श्रृंगारको देखकर मुझे घृणा होती थी। पर आज...वह स्त्री जो मेरे बड़े भाईकी प्रेमिका है, जो मेरी माताके तुल्य है.........प्रेममें इतनी शक्ति है, मैं यह न जानता था! हाय, राह आग अब बुझती नहीं दिखाई देती। यह ज्वाला मुझे भस्म करके ही शान्त होगी। यही उत्तम है। अब इस जीवनका अंत होना ही अच्छा है। इस आत्मपतन के बाद अब जीना धिक्कार है। जीनेसे यह ताप और ज्वाला दिन दिन प्रचंड होगी। घुल घुलकर, कुढ़ कुढ़कर मरनेसे, घर में बैरका बीज बोनेसे, जो अपने पूज्य हैं उनसे वैमनस्य करनेसे, यह कहीं अच्छा है कि इन विपत्तियों के मूलही, का नाश कर दूं। मैंने सब तरह परीक्षा करके देख लिया। राजेश्वरीको किसी तरह नहीं भूल सकता, किसी तरह ध्यानसे नहीं उतार सकता।

(चेतनदासका प्रवेश)

कंचन—स्वामीजीको दण्डवत् करता हूं।

चेतन—बाबा सदा सुखी रहो। इधर कई दिनोंसे तुमको नहीं देखा। मुख मलिन है, अस्वस्थ तो नहीं थे?

कंचन—नहीं महाराज, आपके आशीर्वादसे कुशलसे हूं। पर कुछ ऐसे झंझटोंमें पढ़ा रहा कि आपके दर्शन न कर सका।