यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
संग्राम

१७०

आपको मिल जायगा। वह आपके इच्छाकी बाट जोह रहा है।

कंचन—(आंखोंमें आंसू भरकर) राजेश्वरी, मैं घोर धर्मसंकटमें हूँ। न जाने मेरा क्या अन्त होगा। मुझे इस प्रेमपर अपने प्राण बलिदान करने पड़ेंगे।

राजे०—(मनमें) भगवन्, मैं कैसी अभागिनी हूँ। ऐसे निश्छल, सरल पुरुषको हत्या मेरे हाथों हो रही है। पर करूँ क्या, अपने अपमानका बदला तो लेना ही होगा। (प्रकट) प्राणेश्वर, आप इतने निराश क्यों होते हैं। मैं आपकी हूँ और आपकी रहूंगी। संसारकी आंखों में मैं चाहे जो कुछ हूँ, दूसरोंके साथ मेरा बाहरी व्यवहार चाहे जैसा हो, पर मेरा हृदय आपका है। मेरे प्राण आपपर न्योछावर हैं। (आंचलसे कंचन के आंसू पोंछकर) अब प्रसन्न हो जाइये। यह प्रेमरत्न आपकी भेंट है।

कंचन—राजेश्वरी, उस प्रेमको भोगना मेरे भाग्यमें नहीं है। मुझ जैसा भाग्यहीन पुरुष और कौन होगा जो ऐसे दुर्लभ रत्नकी ओर हाथ नहीं बढ़ा सकता। मेरी दशा उस पुरुषकी सी है जो क्षुधासे व्याकुल होकर उन पदार्थों की ओर लपके जो किसी देवताकी अर्चनाके लिये रखे हुए हों। मैं वही अमानुषी कर्म कर रहा हूँ। मैं पहले यह जानता कि प्रेमरत्न कहां मिलेगा तो तुम अपसरा भी होती तो आकाशसे उतार लाता।