यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
संग्राम

९८

मेरा लड़का मेरे कहने में नहीं है। बहूने उसपर न जाने कौन सा मंत्र डाल दिया है कि मेरी बात ही नहीं पूछता। जो कुछ कमाता है वह लाकर बहू के हाथमें देता है, वह चाहे कान पकड़कर उठाये या बैठाये, बोलता ही नहीं। कुछ ऐसा उतजोग कीजिये कि वह मेरे कहने में हो जाय, बहू की ओरसे उसका चित्त फिर जाय। बस यही मेरी लालसा है।

चेतनदास--(मुस्किराकर) बेटे को बहू के लिये ही तो पाला पोसा था। अब वह बहूका हो रहा तो तेरेको क्यों ईर्षा होती है।

ज्ञानी--महाराज यह स्त्रीके पीछे इस विचारीसे लड़नेपर तैयार हो जाता है।

चेतन--यह कोई बात नहीं है। मैं उसे मोम की भांति जिधर चाहूँ फेर सकता हूँ केवल इसको मुझपर श्रद्धा रखनी चाहिये। श्रद्धा, श्रद्धा, श्रद्धा, यही अर्थ, धर्म, काम, मोक्षकी प्राप्तिका मूलमंत्र है। श्रद्धासे ब्रह्म मिल जाता है। पर श्रद्धा उत्पन्न कैसे हो। केवल बातोंहासे श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कुछ देखना चाहती है। बोलो क्या दिखाऊं। तुम दोनों मनमें कोई बात ले लो। मैं अपने योगबलसे अभी बतला दूंगा। ज्ञानी देवी, पहले तुम मनमें कोई बात लो।

ज्ञानी--ले लिया महाराज।

चेतनदास--(ध्यान करके) बड़ी दूर चली गईं। "मोति-