पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/९७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

१०४ अध्वदर्शक स्वर (मध्यम) का महत्व हिन्दुस्तानी मङ्गीत पद्धति मे रागों के गाने के समय की दृष्टि से मध्यम स्वर विशेष महत्वपूर्ण है। यह स्वर रागों के समय विभाजन मे पथ प्रदर्शक का कार्य करता है, इसीलिये इमे "अध्वदर्शक स्वर" कहा भाता है। सपेरे के समय में प्राय कोमल (शुद्ध) म यम का राज्य रहता है। कोमल रे वाले सविप्रकाश रागों में यदि शुद्ध मध्यम प्रबल होता है तो व प्रात कालीन सवि प्रकामा राग होते हैं और शाम के रागी में तीन मध्यम की प्रधानता रहती है, अत वे मध्याकालान मधिप्रकाश राम कहे जाते हैं। इस प्रकार तीन मध्यम अधिकतर सायकाल की सूचना देता है और कोमल मध्यम प्रात काल की । यमन, हमीर कामोद, केटार इत्यादि तीन मध्यम वाले राग मायकाल में रात्रि के प्रथम प्रहर के अन्दर ही मा लिय जाते हैं। शाम को मुलतानी, पूर्वी तथा श्री इत्यादि रागों से तीन मध्यम का प्रयोग शुरू होता है और यह प्रयोग लगभग आधी रात तक लगातार चलता रहता है। इसके पश्चात् रानि के दूसरे प्रहर मे जब बिहाग गाने का ममय श्राता है तो वीरे-धीरे शुद्ध मध्यम का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है। यह सूचित करता है कि प्रभात का समय निकट पा रहा ओर रात्रि काफी बीत चुकी है । इस प्रकार तीन मध्यम के बाद शुद्ध मध्यम की प्रधानता स्थापित हो जाती है। प्रात कालीन सन्धि प्रकाश रागो मे पहिले शुद्व मध्यम वाले राग भैरन, कालिगाडा इत्यादि गाकर फिर दोनों मध्यम वाले राग आ जाते हैं। किन्तु इनमें शुद्ध मध्यम का महत्व अधिक रहता है जैसे रामकली और ललित इत्यादि, इसके पश्चात् जय रे-ध शुद्ध वाले रागो को गाने का समय आता है तव भी शुद्ध मध्यम की ही प्रबलता रहती है, जैसे बिलावल आदि और फिर कोमल गधार वाले रागो का समय आता है तो दोनों मध्यमों का प्रयोग आरम्भ हो जाता है। इस प्रकार तीसरे प्रहर तक शुद्ध और तीव्र दोनों प्रकार के मनमों का प्रयोग चलता है, किसी राग में कोमल म यम की प्रधानता रहती है किमी में तीव्र की। सूर्यास्त के समय जन स याकालीन मन्धि प्रकाश राग आते हैं, जैसे मारवा, श्री इत्यादि तो उनमे तीन म यम का महल रहता है, इसके पश्चात रे-ग शुद्व वाले राग आते हैं जैसे कल्याण, हमीर, केदार आदि, तो उनमे भी तीत्र मध्यम का ही विशेष प्राधान्य रहता है। अन्त में जाकर जन कोमल गु वाले रागो के गाने का समय आता है तो शुद्ध मध्यम वाले रागो की फिर प्रधानता हो जाती है, जैसे वागेत्री, काफी, मालकोस इत्यादि । इमीलिए कहा जाता है कि हमारी पद्धति में मण्यम स्वर का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। केरल मध्यम के परिवर्तन से गायनकाल मे अन्तर दीसने लगता है। भैरव प्रात काल के प्रथम प्रहर मे गाया जाता है, किन्तु इसके स्वरों में यदि कोमल मध्यम की जगह तीन मध्यम कर दिया जाय तो सायकाल मे गाया जाने वाला पूर्वी राग हो जायगा तथा प्रात काल गाये जाने वाले बिलावल राग के स्परों में से सिर्फ कोमल मध्यम हटाकर वीन मध्यम करने मे रात्रि को गाया जाने वाला राग यमन हो जाता है। इस प्रकार केवल मध्यम का सतत बदल देने मे प्रात काल के स्थान पर यह राग रात्रिगेय हा गये । इसीलिये • थाट मे पैदा होने वाले जन्य रागा म आश्रय राग का याguru 11.- २