पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/८०

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  • संगीत विशारद *

अलंकार प्राचीन ग्रंथकार 'अलंकार' की परिभाषा इस प्रकार करते हैं: विशिष्टवर्णसंदर्भमलंकारं प्रचक्षते । अर्थात कुछ नियमित वर्ण समुदायों को अलंकार कहते हैं । अलंकार का अर्थ है आभूषण या गहना । जिस प्रकार आभूषण शारीरिक शोभा ___ बढ़ाते हैं, उसी प्रकार अलंकारों के द्वारा गायन की शोभा बढ़ जाती है । 'अभिनवरागमंजरी' में लिखा है: शशिना रहितेव निशा विजलेव नदी लता विपुष्पेव । अविभूषितेव कांता गीतिरलंकारहीना स्यात् ॥ अर्थात-जैसे चन्द्रमा के बिना रात्रि, जल के बिना नदी, बिना फूलों के लता एवं बिना आभूषणों के स्त्री शोभा नहीं देती, उसी प्रकार अलंकार बिना गीत भी शोभा को प्राप्त नहीं होते। अलंकारों को पल्टे भी कहते हैं। गायन सीखने से पहिले विद्यार्थियों को अलंकार सिखाये जाते हैं, क्योंकि इनके बिना न तो अच्छा स्वर ज्ञान ही होता है और न उन्हें आगे संगीतकला में सफलता ही मिलती है। अलंकारों से राग विस्तार में भी काफी सहायता मिलती है। अलंकारों के द्वारा राग की सजावट करके उसमें चार चाँद लगाये जा सकते हैं। तान इत्यादि भी अलंकारों के आधार पर ही बनती हैं, जैसे सारे गरे गम गम पऽ । रेग रेग मप मप धऽ । इत्यादि । अलंकार 'वर्ण समुदायों' में ही होते हैं। उदाहरण के लिये एक वर्ण समुदाय को लीजिये. सा रे ग सा इसमें आरोही और अवरोही दोनों वर्ण आगये हैं। यह एक सीढी मान लीजिये. अब इसी आधार पर आगे बढ़िये, और पिछला स्वर छोड़कर आगे का स्वर बढाते जाइये, रे ग म रे यह दूसरी सीढ़ी हुई, ग म प ग यह तीसरी सीढ़ी हुई, इसी प्रकार बहुत से अलंकार तैयार किये जा सकते हैं। शुद्ध स्वरों के अलावा कोमल तीव्र स्वरों के अलंकार भी तैयार किये जा सकते हैं, किन्तु उनमें यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि जिस राग में जो स्वर लगते हैं, वे ही स्वर उस राग के अलंकारों में लिये जावें । रागयोऽयं ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्ण विभूषितः । रंजको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधै ॥ -सङ्गीतरत्नाकर