________________
- संगीत विशारद *
४६ इस प्रकार ध्वनि ( नाद ) की दृष्टि से स्वर स्थानों का स्पष्टीकरण करने के लिये दो साधन हुए: (१) प्रत्येक ध्वनि के एक सैकिण्ड में होने वाले तुलनात्मक आन्दोलन बताना। (२) वीणा के बजने वाले तार की लंबाई के भिन्न-भिन्न भागों से ध्वनि की ऊँचाई निचाई बताना। हमारे प्राचीन ग्रन्थकारों को इनमें से पहिला साधन या तो मालुम नहीं था या उन्होंने उसका उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा। उन्होंने अपने ग्रन्थों में दूसरे साधन की ही चर्चा विशेष रूप से की है। प्रथम साधन की चर्चा आधुनिक ग्रन्थकारों तथा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई है। सङ्गीत के इतिहास का मध्यकाल १४ वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी तक माना जाता है, इसमें सङ्गीत के विद्वानों ने सङ्गीत पर कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे । जिनके नाम हैं (१) सङ्गीत पारिजात (२) हृदय कौतुक (३) हृदय प्रकाश (४) रागतत्वविवोध इत्यादि। ___ इनमें से मुख्य ग्रन्थ 'सङ्गीत पारिजात' है, जिसके लेखक हैं अहोबल पंडित । इन्होंने ही सर्व प्रथम वीणा के तार की लम्बाई के विभिन्न भागों से १२ स्वरों के ठीक-ठीक स्थान निश्चित किये। इसके पश्चात् श्रीनिवास पंडित ने भी अपने लिखे हुए ग्रन्थ 'राग तत्व विवोध' में १२ स्वरों के स्थान बताये हैं। ___पं० श्रीनिवास ने वीणा के ३६ इंच लम्बे खुले तार पर षड़ज स्वर मानकर क्रमशः बारहों स्वरों के परदे बांधने का ढङ्ग बताया है । पण्डित श्रीनिवास के स्वरों की स्थापना का नियम समझने से पहले हमें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि श्री निवास का शुद्ध थाट आधुनिक “काफी थाट" था, अर्थात् इनके शुद्ध थाट में गन्धार और निषाद कोमल थे, जबकि हमारे सङ्गीतज्ञ आजकल शुद्ध थाट बिलावल मानते हैं। इसी प्रकार अन्य मध्यकालीन ग्रंथकारों के ७ शुद्ध स्वरों में ग-नि कोमल होते थे। उनके ७ शुद्ध स्वर इस प्रकार थे: सा (शुद्ध) रे ( तीव्र ) ग (कोमल) म ( कोमल ) प (शुद्ध) ध (तीन) नि ( कोमल) वीणा के तार पर श्रीनिवास के स्वरसबसे पहले श्रीनिवास पण्डित, तार षड़ज और मध्य षड़ज का स्थान वीणा पर इस प्रकार बताते हैं: पूर्वांत्ययोश्चमेर्वोश्च मध्ये तारकसः स्थितिः। . तदर्थे त्वतितारस्य । सस्वरस्य स्थितिभवेत् ।।