पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/४१

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  • सङ्गीत विशारद *

किसी राग में कोई घर लगाते ममर कोर-कोई गायक यह कहते देये जाते है कि इस राग का कोमल धैवत कुछ ऊ चा है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वहा पर कोमल की बजाय तीत्र धैवत लगेगा । उदाहरणार्थ राग पूर्वी में भी कोमल धेचत लगता है और भैरव मे भी किन्तु गुणी मद्गीतज्ञों का कहना है कि पूर्वी में लगने वाला कोमल धेवत भैरव राग के कोमल बैवत मे १ युति ऊँचा है । इमी प्रकार यह भी कहा जाता है कि समाज राग के अपरो मे लगने वाली कोमल निपाद मे, समाज के प्रारोह की कोमल निपाट २ श्रुति ऊची है। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज के श्रारोह में जो कोमल निपाट लगेगी वह तीन निपाद की ओर कुछ सींचकर इस प्रकार ले जाई जायगी कि तोत्र निपाद को तनिक छूकर शीघ्र ही अपने स्थान पर वापिस आजाय, क्योकि यदि वहा अधिक देर लगगई तो वह श्रुतिप्रयोग न होकर स्वर प्रयोग होजायेगा। इस प्रकार दूसरे स्वर का तनिक सर्श करना या चूना "कण" कहलाता है और उपर कहा ही जा चुका है कि कण-मीड-सृत द्वारा जब स्वर दिग्गाया जाता है तब तक तो वह श्रुति है और उस पर ठहरने से यही स्वर कहलाता है उपरोक्त निषेचन से श्रुति और स्वर की तुलना में निम्नलिखित ४ सिद्धान्त निश्चित हुए - १-श्रुति होती हैं और स्वर ७ या १२ -शुतिया का परस्पर अन्तर या मामला ( Interval ) स्वरी की अपेक्षा कम होता है । स्वरो का परस्पर अन्तर श्रुतियों की अपेक्षा अधिक होता है। ३-कण मींड ओर सूत द्वारा जन किसी सुरीली ध्वनि को व्यक्त किया जाता है तब तक तो वह श्रुति है और जहा उम पर ठहराव हुआ तो उसे स्वर कहेंगे। ४-श्रुति और स्वर की तुलना मे अहोवल पडित ने सगीत पारिजात मे सर्प और कुडली का जो उदाहरण दिया है, उसके अनुसार सर्प की कुडली तो श्रुति है और सर्प स्वर है । कुडली के अन्दर जिस प्रकार मर्प रहता है उमी प्रकार श्रुतियों के अन्दर स्वर स्थित हैं। प्राचीन तथा मध्यकालीन ग्रन्थकारों की श्रुतियां प्राचीनकाल में सङ्गीत के दो मुरय ग्रन्थकार भरत और शाङ्ग देव हुए हैं। पाचवी शताब्दी से पहिले ही भरत ने अपना प्रसिद्ध ग्रथ "नाट्यशास्त्र" लिया और तेरहवीं शताब्दी में शाहदेव ने “सङ्गीत रत्नाकर" नामक ग्रन्थ लिसा, जिसका प्रमाण आज भी बहुत सी मङ्गीत पुस्तको द्वारा मिलता है। इन दोनो पडितो ने अपने-अपने ग्रन्थो में श्रुतियो का वर्णन भी किया है, जिसमें इन दोनो ने एक मत से कुल २२ श्रुतिया ही मानी हैं, साथ ही उनका श्रुति स्वरविभाजन भी एक ही सिद्वान्त पर हुआ है। अर्थात् ये दोनो ही पडित अपने स्वरी का परस्पर मम्बन्ध मालुम करने के लिये श्रुति का एक निश्चित नाद स्वीकार करते थे, यानी Id कण, म्पश, माड, सूत स श्रात तथा उम पर ठहरने से वही स्वर हो जाता है।