पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/४०

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  • सङ्गीत विशारद *

. ३६ सङ्गीत दर्पणकार दामोदर पंडित ने श्रुति और स्वर का भेद इस प्रकार बताया है: श्रुत्यनंतरभावित्वं यस्यानुरणनात्मकः । स्निग्धश्च रंजकश्चासौ स्वर इत्यभिधीयते ॥ स्वयं यो राजते नादः स स्वरः परकीर्तितः । भावार्थ-श्रुति उत्पन्न होने के पश्चात् जो नाद तुरन्त निकलता है तथा जो प्रतिध्वनि रूप प्राप्त करके मधुर तथा रंजन करने वाला होता है, उसे स्वर कहते हैं। जो नाद स्वयं ही शोभित होता है ( मधुर लगता है ) तथा जिसे अन्य किसी नाद की अपेक्षा नहीं होती, उसे "स्वर" समझना चाहिए। इस व्याख्या से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि टंकोर मात्र से जो क्षणिक ध्वनि (आवाज़ ) पैदा हुई, वह श्रुति है और फिर तुरन्त ही वह आवाज स्थिर होगई तो वह "स्वर" है। श्रुतिस्वरूपःस्वरूपमात्रश्रवणान्नादोऽनुरणनं विना । श्रुतिरित्युच्यते भेदास्तस्या द्वाविंशतिर्मताः ॥ -सङ्गीतदर्पण अर्थात्-प्रथमाघात से अनुरणन ( प्रतिध्वनि ) हुए बिना जो ह्रस्व ( टंकोर ) नाद उत्पन्न होता है, उसे श्रुति समझना चाहिए । श्रुति और स्वर देखने में यह दो नाम अवश्य हैं; किन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाय तो श्रुति और स्वर में कोई विशेष अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों ही सङ्गीतोपयोगी आवाजें हैं, दोनों का ही प्रयोग गायन-वादन में होता है और दोनों ही आवाजें स्पष्ट सुनी जा सकती हैं अब श्रुति और स्वर का भेद सरलता पूर्वक समझाते हैं:' श्रुति-सुरीली ध्वनियों के एक समूह में से सङ्गीत के प्राचीन पंडितों ने २२ स्थान ऐसे चुन लिये, जिनकी आवाजें परस्पर नीची ऊंची हैं और जो सङ्गीत में उपयोगी सिद्ध हुई हैं । इन्हें ही श्रुति कहा है। स्वर-इसके बाद उन्हीं २२ ध्वनियों में से १२ ध्वनि ऐसी चुनली गई, जिनकी आवाजें परस्पर नीची ऊँची हैं, किन्तु उन २२ ध्वनियों में परस्पर जो अन्तर ( INTERVAL' ) है, वह बहुत ही सूक्ष्म है और इन १२ ध्वनियों में जो परस्पर अन्तर है वह उनसे कुछ अधिक है । यही कारण है कि श्रुतियों के अन्तर को साधारण सङ्गीतज्ञ की अपेक्षा एक उत्तम सङ्गीतज्ञ ही अनुभव कर सकता है, किन्तु स्वरों के अन्तर (फासले ) को साधारण सङ्गीत प्रेमी भी पहचान लेते हैं। १२ ध्वनियों को फिर और भी संक्षेप किया तो ७ ध्वनि ही रह गई। यह ७ शुद्ध स्वर हुए और वे १२ स्वर शुद्ध व विकृत मिलकर हुये।