में सङ्गीत की रुचि विशेष रूप से उत्पन्न हुई। इस काल में शास्त्रीय साधना के साथ-साथ संगीत में नवीन प्रयोग द्वारा एक विशेषता पैदा करने का श्रेय विश्वकवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर को है, इन्होंने प्राचीन राग रागनियों के आकर्षक स्वर समुदाय लेकर तथा अन्य कलात्मक प्रयोगों द्वारा 'रवीन्द्र सङ्गीत' के रूप में एक नई चीज़ सङ्गीत प्रेमियों को दी।
श्री भातखण्डे और उनके ग्रन्थ—श्री विष्णु नारायण भातखण्डे का जन्म बम्बई प्रांत के बालकेश्वर नामक स्थान में १० अगस्त १८६० ई॰ को हुआ। इन्होंने १८८३ में बी॰ ए॰ और १८६० में एल-एल॰ बी॰ की परीक्षा पास की। इनकी लगन आरम्भ से ही सङ्गीत की ओर थी। १९०४ में आपकी ऐतिहासिक सङ्गीत यात्रा प्रारम्भ हुई, जिसमें आपने भारत के सैकड़ों स्थानों का भ्रमण करके सङ्गीत सम्बन्धी साहित्य की खोज की। बड़े-बड़े गायकों का सङ्गीत सुना और उनकी स्वरलिपियां तैयार करके "क्रमिक पुस्तक मालिका" में प्रकाशित कराईं, जिसके ६ भाग हैं। थ्योरी (शास्त्रीय) ज्ञान के लिये आपने हिन्दुस्थानी सङ्गीत पद्धति के ४ भाग मराठी भाषा में लिखे[१]। संस्कृत भाषा में भी आपने लक्ष्यसङ्गीत और "अभिनव राग मंजरी" नामक पुस्तकें लिखकर प्राचीन सङ्गीत की विशेषताओं एवं उसमें फैली हुई भ्रान्तियों पर प्रकाश डाला। श्री भातखण्डे जी ने अपना शुद्ध थाट बिलावल मानकर थाट पद्धति स्वीकार करते हुए १० थाटों में बहुत से रागों का वर्गीकरण किया।
१९१६ ई॰ में आपने बड़ौदा में एक विशाल सङ्गीत सम्मेलन किया, इसका उद्घाटन महाराजा बड़ौदा द्वारा हुआ। इसमें सङ्गीत के विद्वानों द्वारा सङ्गीत के अनेक तथ्यों पर गम्भीरता पूर्वक विचार हुए और एक "आल इण्डिया म्यूज़िक एकेडमी" की स्थापना का प्रस्ताव भी स्वीकृत हुआ। इस म्यूज़िक कान्फ्रेन्स में भातखण्डे जी के सङ्गीत सम्बन्धी जो महत्वपूर्ण भाषण हुये वे भी अँग्रेजी में "A Short Historical Survay of the Music of Upper India" नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। (इसका भी हिन्दी अनुवाद सङ्गीत कार्यालय से प्रकाशित हो चुका है)
बाद में आपके प्रयत्न से अन्य कई स्थानों में भी सङ्गीत सम्मेलन हुए तथा सङ्गीत विद्यालयों की स्थापना हुई जिनमें लखनऊ का मैरिस म्यूज़िक कालेज (अब "भातखण्डे कालेज आफ़ म्यूज़िक"), गवालियर का माधव सङ्गीत महा विद्यालय तथा बड़ौदा का म्यूज़िक कालेज विशेष उल्लेखनीय हैं।
इस प्रकार इन्होंने अपने अथक परिश्रम द्वारा सङ्गीत की महान सेवा की और संगीत जगत में एक नवीन युग स्थापित करके अन्त में १९ सितम्बर १९३६ को आप परलोक वासी हुए।
राजा नवाबअली लिखित "मारिफुन्नग़मात"—सन् १९११ के लगभग लाहौर के रहने वाले एक सङ्गीत विद्वान राजा नवाबअली खाँ भातखण्डे जी के संपर्क में आये। राजा साहेब ने अपने एक प्रसिद्ध गायक नजीर खां को आचार्य भातखण्डे जी के पास सङ्गीत के शास्त्रीय ज्ञान तथा लक्षणगीतों को सीखने के लिये भेजा और फिर उर्दू में सङ्गीत की एक सुन्दर पुस्तक "मारिफुन्नग़मात" लिखी। इस पुस्तक का यथेष्ट आदर हुआ और वह बी॰ ए॰ के म्यूज़िक कोर्स में शामिल
- ↑ इनका हिन्दी अनुवाद भातखण्डे सङ्गीत शास्त्र के नाम से सङ्गीत कार्यालय हाथरस से प्रकाशित हो गया है।