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सङ्गीत विशारद



जो आश्रय प्राप्त होरहा था उसमें बाधा पड़ने लगी। फिर भी कुछ खास-खास रियासतों में विभिन्न घरानों के सङ्गीतज्ञ सङ्गीत साधना में तल्लीन रहे। साथ ही उन दिनों सङ्गीत का प्रवेश भले घरों में निषिद्ध माना जाने लगा, इसका भी एक विशेष कारण था कि इस समय में शासन वर्ग की उदासीनता के कारण सङ्गीतकला निकृष्ट श्रेणी के व्यवसायी स्त्री-पुरुषों में पहुँच चुकी थी। अतः नवीन शिक्षा प्राप्त सभ्य समाज का इसके प्रति उपेक्षा रखना स्वाभाविक ही था। किन्तु संगीत के भाग्य ने फिर पलटा खाया और कुछ प्रसिद्ध अँग्रेजों (सर विलियम्स जोन, कैप्टेन डे, कैप्टेन विलर्ड आदि) ने भारतीय सङ्गीत का अध्ययन करके इस पर कुछ पुस्तकें लिखीं, जिनका प्रभाव शिक्षितवर्ग पर अच्छा पड़ा और सङ्गीत के प्रति अनादर का भाव धीरे-धीरे घटने लगा।

मुहम्मद रज़ा कृत नगमाते आसफी—आधुनिक काल में, सर्वप्रथम बिलावल को शुद्ध थाट मानकर १८१३ ई॰ में पटना के एक रईस मुहम्मद रज़ा ने 'नगमाते आसफी' नामक पुस्तक लिखी। इन्होंने पूर्व प्रचलित राग-रागनी पद्धति का खण्डन करके अपना एक नवीन मत चलाया, जिसमें ६ राग और ३६ रागनी मानकर उनका नये ढंग से विभाजन किया।

सवाई प्रतापसिंह लिखित संगीत सार—१७७९-१८०४ ई॰ में जयपुर के महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने एक विशाल संगीत कान्फ्रेंस का आयोजन करके बड़े-बड़े संगीत कलाविदों को इकट्ठा किया और उनसे विचार विनिमय करने के पश्चात् "संगीत सार" नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें बिलावल थाट को ही शुद्ध थाट स्वीकार किया गया है।

कृष्णानन्द व्यास कृत संगीत राग कल्पद्रुम— इसके पश्चात् १८४२ ई॰ में श्री कृष्णानन्द व्यास ने "संगीत राग कल्पद्रुम" नामक एक बड़ी पुस्तक लिखी, जिसमें उस समय तक के हजारों ध्रुपद, ख्याल तथा अन्य गीत (बिना स्वरलिपि के) दिये हैं।

उत्तरीय भारत में इस समय राग वर्गीकरण की नई पद्धति बनाने की योजना चल रही थी और उधर तंजौर दक्षिणी संगीत का विशाल केन्द्र बन गया था, जहाँ अनेक प्रसिद्ध सङ्गीत विद्वान त्यागराज, श्यामशास्त्री सुबराम दीक्षित आदि सङ्गीत कला का प्रचार कर रहे थे।

इस परिवर्तन काल में भी बंगाल के राजा सर सुरेन्द्र मोहन टैगौर ने तथा अन्य कुछ विद्वानों ने राग-रागनी पद्धति का ही समर्थन करते हुये कुछ पुस्तकें लिखीं, जिनमें "युनिवर्सल हिस्ट्री आफ म्यूज़िक" का नाम विशेष उल्लेखनीय है।



सङ्गीत प्रचार का आधुनिक काल (१९००-१९५० ई॰)

इस आधुनिक काल में सङ्गीत के उद्धार और प्रचार का श्रेय भारत की २ महान विभूतियों को है, जिनके शुभ नाम हैं श्री विष्णुनारायण भातखण्डे और श्री विष्णु दिगम्बर पलुस्कर। दोनों ही महानुभावों ने देश में जगह-जगह पर्यटन करके सङ्गीत कला का उद्धार किया। जगह-जगह अनेक सङ्गीत विद्यालयों की स्थापना की। सङ्गीत सम्मेलनों द्वारा सङ्गीत पर विचार विनिमय हुए जिसके फलस्वरूप जनसाधारण