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- मङ्गीत विशारद ..
स्वामी हरिदाम जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदाम को हिन्दी माहित्य का सझातिकालीन माधव कहा जाता है, उसी प्रकार स्वामी हरिदाम जी को भी भारतीय सङ्गीत का रक्षक कहना पड़ेगा। स्वामी हरिदास का जन्म भाद्रपद शुक्ला अष्टमी सम्वत् १५६ मे, उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले मे, सैर वाली मडक पर एक छोटे से गाव में हुआ था। तभी से उस गान का नाम भी हरिदासपुर हो गया । आपके पिता का नाम श्री आशुधीर था, जो कि मुल्तान जिले के उच्च ग्राम के निवामी ये। आप मारस्वत ब्राह्मण कुल के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। श्री हरिदासजी की माता का नाम गङ्गा था । पाल्यकाल से ही मगीत के सस्कार स्वाभाविक रूप से आपके अन्दर विद्यमान थे। आगे चलकर यह सम्कार एक दम विक्रमित हुये और कृष्ण भक्ति में लीन हो गये । २५ वर्प की तरुण अवस्था में ही आप वृन्दावन आ गये आर निधुवन निकु ज की एक मोपडी में निवास करने लगे। यहाँ पर एक मिट्टी का बर्तन और एक गुदडी, यही स्वामी जी की सम्पत्ति थी। ब्रज रेणु के कण-कण मे, जमुना के नीर मे, गगन मण्डल के चाद तारो में, आप भगवान कृष्ण की लीलाओं की मनोरम झाकिया करने लगे। चारों ओर से गु जित होने पाले मुरली के मधुर नाद ने स्वामी जी को प्रारम विभोर कर दिया। वृन्दावन मे निवास करके स्वामी जी ने ब्रज भाषा में अनेक ध्रुपद गीतो की रचना की एव उन्हें शास्त्रोक्त राग तया तालों में गाकर जिज्ञासुओं को तृप्त किया । यों तो स्वामी जी का मगीत-प्रसाद अनेक व्यक्तियों को मिला होगा, किन्तु इनके मुग्य शिष्यो के नाम 'नाट विनोट' नामक प्रथ में इस प्रकार पाये जाते हैं - वजू, गोपाल लाल, मटन राय, रामदास, दिवाकर पण्डित, सोमनाथ पण्डित, तन्ना मित्र (तानमेन) और राजा मौरसेन । मद्रास प्रात को छोडकर ममस्त देश में वर्तमान प्रचलित शास्त्रीय सङ्गीत स्वामी जी एव उनके शिन्यो को ही विभूति है । सगोत कल्पद्रुम मे बहुत सी रचनाएँ स्वामी जी की ही रची हुई प्रतीत होती हैं। आजकल ब्रज में जो रासलीला प्रचलित है उसको स्वामी हरिदास की ही देन ममझना चाहिये । रास के पदों की गायन युक्त परिसाटी के प्रवर्तक आप ही थे जो आज तक लोकप्रिय होकर गार्मिक भावनाओं को कलात्मक रूप दे रही है । नाभादास जी के एक छापय से प्रतिध्वनित होता है कि स्वामी हरिदास के सद्गीत को सुनने के लिये बडे-बडे राजा-महाराजा उनके द्वार पर सडे रहते थे। एक बार सम्राट अकार ने भी तानसेन के साथ आकर गुप्त रूप मे स्वामी जी का गायन सुना था । अन्त मे मम्वत् १६६४ वि० में अर्थात् ६५ वर्प को अवस्था पाकर आप इम भौतिक शरीर को त्याग कर मदेव के लिये निधिवन की कुन्जो में विलीन हो गये।