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- संगीत विशारद * (१) अति प्राचीन ( वैदिक ) काल
[ २००० ई० पूर्व से १००० ईसा पूर्व तक ] । वेदों में इस वैदिक काल में सङ्गीत का प्रचार था, इसका प्रमाण हमें - वेदों से भली प्रकार मिलता है। ऋग्वेद में मृदङ्ग, वीणा, वंशी, डमरू आदि वाद्य यन्त्रों का उल्लेख मिलता है और सामवेद तो सङ्गीतमय है ही। कहा जाता है कि सामगान में पहले केवल ३ स्वरों का प्रयोग होता था जिनको उदात्त. अनुदात्त और स्वरित कहते थे। आगे चलकर एक-एक करके स्वर और बढ़ते गये और इस वैदिक काल में ही सामगान सप्त स्वरों में होने लगा । इसका प्रमाण “सप्त स्वरास्तु गीयन्ते सामभिः सामगैबुधैः” माण्डूकशिक्षा की इस पंक्ति से भी मिलता है। + + सङ्गीत - di+ पाणिणि शिक्षा तथा नारदीयशिक्षा में निम्नलिखित श्लोक मिलता है, जिसके आधार पर सप्त स्वर उनके उदात्त अनुदात्त और स्वरित के अन्तर्गत इस प्रकार आते थे: उदात्त निषादगान्धारौ अनुदात्त रिषभधैवतो । स्वरित प्रभवा ह्य ते षडजमध्यमपंचमा ॥ अर्थात्, उदात्त -अनुदात्त-- - स्वरित नि ग . रेध . स म प याझ्यवल्क शिक्षा में भी इसी प्रकार का वर्गीकरण मिलता है। वैदिक काल में सङ्गीत गायन के साथ-साथ नृत्यकला भी प्रचलित थी, इसका प्रमाण ऋग्वेद ( ५॥३३॥६) में आया है "नृत्यमनो अमृता"। लिंग पुराण के अनुसार शिव के प्रधान गण नान्दिकेश्वर थे। इन्होंने भरतार्णव नामक एक विशाल ग्रंथ नृत्यकला पर लिखा था । बाद में इसका संक्षिप्तीकरण "अभिनय दर्पण" में हुआ। नृत्य करती हुई अनेक प्राचीन मूर्तियां भी इसका प्रमाण देती हैं कि वैदिक काल में नृत्यकला प्रचलित थी। देवताओं द्वारा सोमरस पान करके नृत्य करने की प्रथा से भी सङ्गीत और नत्य की प्राचीनता का समर्थन होता है। (२) प्राचीन काल [१००० ईसा पूर्व से सन् ८०० ई० तक ] पौराणिक । इस समय का पूर्वार्ध भाग अर्थात् १००० ईसा पूर्व से १ ईसवी तक का समय पौराणिक और बौद्धकाल के अन्तर्गत आता है। इस काल और । बौद्धकाल में सङ्गीत का प्रचार किस रूप में रहा ? इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता, किन्तु उपनिषद तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर इतना कहा जा . सकता है कि इस काल में भी सङ्गीत किसी न किसी रूप में चालू अवश्य रहा । इसके बाद अर्थात् १ ई० से ८०० ई० तक सङ्गीतकला प्रकाश में आई । इसी काल में भरत ने S +++++++++++++ +