२१०
- सङ्गीत विशारद *
. इम प्रकार तबले के १० बोल बताये गये हैं। तवले के बोला को ३ भागों में बाटा गया है, दाहिने हाथ के बोल और याय हाथ के बोल तथा दोनों हाथों के मम्मिलित वोल। (१) दाहिने हाथ के बोलना, ता, तिट, फिट, हिं या तुन, तिन इत्यादि । (२) बाये हाथ के बोल-ची, या ग, क, कत्त, किन इत्यादि । (3) दोनो हाथो के सम्मिलित वोल-चिन्न या धिन, धा, चिन्ना, दिन्नक, गिद्दी, किडनग, फिटतक, अक, कहानतान, तकिट इत्यादि । यद्यपि इन तीन प्रकार के बोलों में बहुत मे ऐसे बोल आ गये हैं, जो उपरोक्त टस वर्णो मे बताये हुए बोलो से भिन्न हैं । किन्तु मूल रूप से बोल १० ही हैं, उनमे से अक्षरों को मिलाजुला कर अधिक चोलो की उत्पत्ति हुई है। मृदंग ( पखावज ) नटराज शकर का डमरू मत्रमे प्राचीन घन वाद्य है, उसी के आधार पर मृग की उत्पत्ति हुई। मृदङ्ग की प्राचीनता का प्रमाण ऋग्नेद (५॥३३॥5 ) से मिलता है, जिसमें वीणा, मृदद्ग, वशी और डमरू का वर्णन आया है। पुरातन काल में मृदग को 'पुष्कर' भी कहा जाता था, ऐमा भरतमत के अन्यों में वर्णन मिलता है। पुप्फर वाय देवताओं को अति प्रिय था। इसकी ताल के साथ-साथ उनका नृत्य हुआ करता था, इसका प्रमाण अनेक प्राचीन मूर्तियों तथा चित्रों द्वारा मिलता है । प्राचीन पुष्कर वाद्य कई प्रकार के होते थे, जैसे-हरीतिकी, जवाकृति, गोपुच्छाकृति । हरड के आकार में जो पुष्कर होता था, उसे हरीतिकी कहते थे। जौ के आकार से मिलता-जुलता पुष्कर जवाकृति कहलाता था और गौ की पूँछ के निचले गुच्छे से जिसका आकार ममता रसता था, उसे गोपुच्छाकृति नाम दिया गया । मृदङ्ग, मुरज और मर्दल यह 3 नाम भी पसावज के ही हैं। इस प्रकार मृदग के विभिन्न नाम और उनकी प्राकृतियों का वर्णन ग्रन्या मे मिलता है। मृदङ्ग का विशेष प्रचार दक्षिण भारत में रहा। कुछ समय बाद उत्तर भारत के सङ्गीतनों ने मृदङ्ग से मिलता -जुलता प्रकार बनाकर इसका नाम पखावज रस लिया। पसावज पर अनेक कठिन-कठिन तालो का प्रयोग हुआ करता था। त्रुपद, धमार, ब्रह्म, रुद्र, विष्णु, लक्ष्मी, सवारी इत्यादि ताले इस पर वाजाई जाती थीं। किन्तु जवमे तबले का आविष्कार हुआ, मृदङ्ग का प्रचार बहुत कम होगया, अब तो मृदङ्ग के दर्शन मन्दिरों में, कीर्तन गण्डलियों में यदा-कदा हो जाते हैं । फिर भी कुछ गुणीजन इसको महत्व देते हैं और इसका उपयोग भी करते हैं। प्रसिद्ध पराजिया में ला० भवानीप्रमादसिंघ पसावजी को भातसडे जी ने अप्रतिम पसावजी कहकर सम्बोधित किया है। प्रसिद्ध परमावजी कुदसिह इन्हीं के शिप्य थे । औंध के नवाव द्वारा उन्हें "कुवरदास" की पदवी प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि एकवार वाजिद अली शाह की एक महफिल मे कुढऊसिंह व जोतासिंह पसारजियों को राजा ने १०००) रुपये की यैली, इनकी क्ला पर प्रसन्न होकर उपहार में दी थी। इनके पश्चात् ताजग्मा (डेरेदार ) भवानीसिंह सलीफा नासिरमा इत्यादि पसावजी प्रमिद्ध होगये हैं। चारसअकार10-T