- संगीत विशारद *
१३१ कव्वाली कव्वाली मुसलिम समाज की एक विशेष गायकी है। इसमें अधिकतर फारसी व उर्दू भाषा का ही प्रयोग होता है। स्थायी अन्तरा के अतिरिक्त इसके बीच-बीच में 'शेर' भी होते हैं । हिन्दुओं में भी कव्वाली का प्रचार पाया जाता है। इसके गाने वाले 'कव्वाल' कहलाते हैं। किसी विशेष अवसर पर रात-रात भर कव्वालियां होती हैं। कव्वाली के साथ ढोलक बजती हुई अधिक देखी जाती है, साथ-साथ हाथों से तालियां भी बजती हैं । रूपक, पश्तो, कव्वाली आदि तालों का इसमें विशेष प्रयोग होता है । दादरा दादरा एक ताल का भी नाम है, किन्तु एक प्रकार की गायकी को भी 'दादरा' कहते हैं। इसकी चाल गजल से कुछ मिलती जुलती होती है। मध्य तथा द्रुतलय में दादरा. बहुत अच्छा मालूम पड़ता है । इसमें प्रायः शृङ्गार रस के गीत होते हैं। सादरा इस गाने की लय भी दादरा से बहुत कुछ मिलती-जुलती होती है। सादरा को अधिकतर कत्थक गायक एवं वेश्यायें गाती हैं। इसमें कहरवा, रूपक, झपताल तथा दादरा इन तालों का प्रयोग होता है । ठुमरी गायक 'सादरा' भली प्रकार गा लेते हैं, इसके गीतों में प्रायः शृङ्गाररस ही अधिक मिलता है। खमसा खमसा गाने का प्रचार मुसलमानों में अधिक पाया जाता है। इसके गीतों में उर्दू भाषा का प्रयोग ही अधिक मिलेगा। खमसा की गायकी कव्वाली से मिलती-जुलती होती है। लावनी 'चङ्ग' (- एक प्रकार का ताल वाद्य ) बजा-बजा कर कई आदमी मिलकर ( या अकेला व्यक्ति ) 'लावनी' गाते हैं। इसमें शृङ्गार तथा भक्तिरस के गीत होते हैं और कहरवा ताल की लय का प्रयोग होता है । चतुरंग १, ख्याल, २ तराना, ३ सरगम, ४ त्रिवट, ऐसे चार अङ्ग जिस गीत में सम्मिलित होते हैं, उसे 'चतुरङ्ग' कहते हैं। पहले भाग में गीत के शब्द, दूसरे में तराने के बोल, तीसरे में किसी राग की सरगम और चौथे भाग में मृदङ्ग के बोलों की एक छोटी सी परन रहती है । चतुरङ्ग को ख्याल की तरह गाते हैं, किन्तु इसमें तानों का प्रयोग ख्याल को अपेक्षा कम होता है। .