१०६ उमाकान लिया ध्रुवपद (ध्रुपद) कहा जाता है कि ध्रुपद गायन का आविष्कार सबसे पहिले पन्द्रहवीं शताब्दी में वालियर के राजा मानमिह तोमर द्वारा हुआ था। उन्होंने सय भी कुछ ध्रुपदों की रचना की थी। प्राचीन काल मे तुपट में मस्कृत श्लोकों को गाकर हमारे ऋषि मुनि भगवान की आराधना करते थे। वर्तमान समय में भी त्रुपद एक गम्भीर और जोरदार गाना माना जाता है, ध्रुपद के गीत प्राय हिन्दी, उर्दू एव बृजभाषा में मिलते हैं। यह मर्दानी अावाज का गायन है । इममे वीर, शृङ्गार और शातिरस प्रधान हैं। 'अनप मद्गीतरत्नाकर' में ध्रुपद की व्याग्या इस प्रकार की है गीर्वाणमध्यदेशीयभापामाहित्यराजितम् । द्विचतुर्माक्यसम्पन्न नरनारीकथाश्रयम् ।। श्रगारग्सभावाद्य गगालापटात्मकम् । पादांतानुप्रासयुक्त पादानयुगकं च वा ॥ प्रतिपाद यत्र बद्धमेव पादचतुष्टयम् । उद्ग्राहध्रुवकाभोगांतर ध्रुवपदं स्मृतम् ।। --अनूप सङ्गीतरत्नाकर मुपद मे स्थायी, अन्तरा, मचारी और प्राभोग गेमे चार भाग होते हैं। ध्रुपद अधिकतर चौताल, सूलफाफ, मपा, तीत्रा, ब्रह्मताल, रुद्रताल इत्यादि तालों में गाये जाते हैं। ध्रुपद में तानों का प्रयोग नहीं होता, किन्तु उममें दुगुन, चौगुन, बोलतान, गमक इत्यादि का प्रयोग करने की छूट है । ध्रुपद की ४ वाणो प्राचीनकाल मे ध्रुपद गायकों को फलावन्त कहते थे। धीरे-धीरे ध्रुपद गायरी के भेट उनकी चार वाणियों के अनुसार किये जाने लगे, उन चार वाणियों के नाम इस प्रकार हैं--(१) गोचरहरी वाणी अथवा शुद्ध वाणी, (२) सण्डार वाणी, (३) डागुर- वाणी, (2) नोहार वाणी। 'मादनुल मौसीकी' नामक ग्रथ के प्रणेता हकीम मुहम्मद ने उक्त चारों वाणियो के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार प्रगट किये है -
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