पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/११५

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  • सङ्गीत विशारद *

उपरोक्त श्लोकों का भावार्थ उनके नम्बरों के क्रम मे नीचे दिया जाता है- १-चाइ यानी मातु और गेय यानी धातु का जो कर्ता है अर्थात् पद्यरचना और स्वर- रचना का जो ज्ञाता है, वह वाग्गेयकार है। २-जिमे व्यासरण शास्त्रज्ञान, अमरकोश आदि प्रथों का ज्ञान और सब प्रकार के छन्दों का ज्ञान है तथा जो साहित्य शास्त्र में बताये हुए उपमादिक अलकारों का जाता है। ३- उसी शास्त्र में वर्णित अंगार आदि रसों और विभावादिक भावों का जिसे उत्तम ज्ञान है, जो भिन्न-भिन्न देशों के रीति रिवाज और उनकी मापाओं की जानकारी रसते हुए मङ्गीतादि शास्त्रों में प्रवीण है। , ५-गीत वाद्य और नृत्य इन तीनों में जो चतुर है और जिसे हृद्य अर्थात् सुन्दर शारीर प्राप्त हुआ है (शारीर एक पारिभाषिक शब्द है, अत हृद्य शारीर का अर्थ यह है कि जो व्यक्ति बिना कठोर परिश्रम के या अभ्यास न करते हुए भी रागो की अभिव्यक्ति यानी राग प्रदर्शन में समर्थ होता है उसके लिए कहा जाता है कि उमे हृदय (मनोहर) शारीर प्राप्त है ) जो लय, ताल और कलाओं का ज्ञानी है और जिमे भिन्न-भिन्न स्वर काकुओं यानी स्वर भेदों का ज्ञान है (काकु भी एक पारिभाषिक शब्द है। कल्लिनाथ ने इस शट की व्याख्या "काकुनेविकार" की है)। ५-जो प्रतिभावान बुद्धि रग्यता है ( जिसे नई-नई कल्पना सूमती हैं) जिसे सुपटायक गायन करने की शक्ति प्राप्त है। देशी रागो का जिसे ज्ञान है और जो समा में अपनो वाक्पटुता (व्यारयान चातुरी) के बल से विजय प्राप्त कर सकता है। ६-जिसने राग-द्वीप का परित्याग करके सरसता धारण की है, उचित अनुचित का निमे ज्ञान है यानी किस स्थान पर कोनमी चीज़ उचित है, इसे जानता है। जिसमें स्वतन्त्र रचना करने की शक्ति निहित है और जो नई-नई स्वररचना करने का ज्ञान रसता है। ७-जो दूसरों के मन का भार जानने की शक्ति रसता है। जिसे प्रबन्धों का उच्च ज्ञान प्राप्त है । जो शीत्रता मे कविता रचने की सामर्थ्य रखता है तथा जिसमें भिन्न-भिन्न गीतों की छायाओं का अनुकरण करने की शक्ति है। -तीनों स्थानों (मन्द्र, मध्य, तार ) मे गमक लेने की जो शक्ति रमता है, राग आलप्ति तथा रूपकालप्ति में जो निपुण है और जिमम चित्त की एकाग्रता का गुण है । गेसे सा गुण जिममें विद्यमान हैं, वही उत्तम वाग्गेयकार बताया गया है ।