- संगीत विशारद *
१२१ अताई गायक-जो व्यक्ति किसी एक उस्ताद को अपना उस्ताद या गुरू न मान कर शुद्ध रूप से नियमित सङ्गीत शिक्षा नहीं लेते, बल्कि इधर-उधर जहां से भी प्राप्त हुआ देख, सुनकर गाने बजाने लगते हैं, उन्हें अताई गवैया कहा जाता है । कत्थक-नृत्य सङ्गीत की शिक्षा देने वाले व्यवसायी, जिनके यहां कई पीढ़ी से यही कार्य होता आया है, उन्हें कत्थक या ढाड़ी कहते है। उत्तम वाग्गेयकार वाक् और गेय से मिलकर वाग्गेय शब्द बना है । वाक् यानी पद्यरचना और गेय का अर्थ है स्वर रचना, इसी को मातु और धातु भी कहते हैं । अर्थात जो स्वररचना और पद्यरचना का ज्ञाता हो, ऐसे सङ्गीत विद्वान को प्राचीनकाल में वाग्गेयकार की संज्ञा दी जाती थी। पाश्चात्य विद्वान उसे कम्पोज़र ( Composer ) कहते हैं । वाग्गेयकार को साहित्य और सङ्गीत दोनों का उत्तम ज्ञान होना अति आवश्यक है, तभी वह पद्यरचना और स्वररचना कर सकता है । 'सङ्गीत रत्नाकर' में वाग्गेयकार के गुणों का वर्णन इस प्रकार किया है:- वामांतुरुच्यते गेयं धातुरित्यभिदीयते । वाचं गेयं च कुरुते यः स वाग्गेयकारकः ॥ १ ॥ शब्दानुशासनज्ञानमभिधानप्रवीणता । छन्दः प्रभेदवेदित्वमलंकारेषु कौशलम् ॥ २ ॥ रसभावपरिज्ञानं देशस्थितिषु चातुरी । अशेषभाषाविज्ञानं कलाशास्त्रेषु कौशलम् ।। ३ ।। तूर्यत्रितयचातुर्य हृयशारीरशालिता लयतालकलाज्ञानं विवेकोऽनेककाकुषु ॥४॥ प्रभूतप्रतिभोद्भेदभाक्त्वं सुभगगेयता देशीरागेष्वभिज्ञत्वं वाक्पटुत्वं सभाजये ॥ ५ ॥ रागद्वषपरित्यागः सार्द्रत्वमुचितज्ञता अनुच्छिष्टोक्तिनिर्बन्धो नूत्नधातुविनिर्मितिः ॥ ६॥ परचित्तपरिज्ञानं प्रबन्धेषुप्रगल्भता । द्रुतगीतविनिर्माणं पदांतरविदग्धता ॥७॥ त्रिस्थानगमकप्रौढिविविधालप्तिनैपुणम् । अवधानं गुणैरेभिर्वरो वाग्गेयकारकः ॥ ८॥ ---