- शब्द गुरु नानक(श्री गुरू ग्रन्थसाहब)
प्रीतम जान लेहु मन माहीं।
अपने सुख सों ही जग फांदियो , को काहू को नाहीं॥
सुख में आन बहुत मिल बैठत, रहत चहूँ दिस घेरे।
बिपत पड़ी सब ही संग छाड़त, कोऊ न आवत नेरे॥
घर की नार बहुत हित जा स्यों सदा रहत संग लागी।
जब ही हंस तजि एह काया, प्रेत-प्रेत कर भागी॥
एह बिधि को ब्योहार बनियो है ,जांसों नेहु लगायो।
अंत बार 'नानक' बिन हर जी,कोऊ काम न आयो॥
(ताल तीन मात्रा १६)
स्थाई
समतालीखालीताली
x
धा धिं धिं धा
प — प —
मा — हीं—
प — प —
मा — हीं —
रे — रे रे
ही — ज ग
प — प —
ना — हीं —
|
२
धा धिं धिं धा
नी॒ — ध प
प्री — त म
रे ग॒ रे स
प्री — त म
नी॒ — ध प
प्री — त म
ग॒ रे स —
फा — — दयो
नी॒ — ध प
प्री — त म
|
०
धा तिं तिं ता
म ध प ग॒
जा न ले हु
सऩी स रे रे
जा न ले हु
ग॒ — ग॒ ग॒
अ प ने —
प म ध प
को — — का
|
३
ता धिं धिं धा
रे — म म
ओ — म न
ग॒ — म म
ओ — म न
ग॒ ग॒ ग॒ —
सु ख सों —
ग॒ रे म म
हू — को —
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