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| ( २०६ .) पाँचवाँ पाठ शब्दों का लोप |, ३५६---कभी-कभी वाक्य में संक्षेप अथवा गौरव लाने के लिए कुछ ऐसे शब्द छोड़ दिए जाते हैं जो वाक्य के अर्थ से सहज ही जाने जा सकते हैं। (क) उद्देश्य को लोप–सुनते हैं कि आज जायेंगे । वहाँ मत जाना । हों, जाता हूँ। जैसे बनेगा वैसे काम किया जायेगा । सुना गया है कि वे आवे ।। | (ख) कर्म का लोप-लड़का पढता है। बहरा सुन नहीं सकता । तुम्हारी बहिन सो रही है । गरीब स्त्रियाँ पीसती हैं। लड़की अब देख सकती है। ।। (ग) क्रिया का लोप--दूर के ढोल सुहावने । मै वहाँ जाने का नहीं। • महाराज की जय । आप को प्रणाम । विवाद करने से क्या लाभ ? (घ) विशेष्य का लोप--भले भलाई करते हैं। हमारी और उनकी अच्छी निभी। विद्वानों का आदर सर्वत्र होता है। सुधरी बिगरी बेग ही बिंगरी फिर सुधरै न । बहुत गई थोड़ी रही नारायण अब चेत । । (ङ) समुच्चय-बोधक का लोप--नौकर बोला, महाराज पुरोहित जी । आए हैं। क्या जाने किसी के मन में क्या भरा है। आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ। मेरे भक्तो पर भी पड़ी है, इस समय चलकर उनकी चिंता मिटा देना चाहिए। ताँबा खदान से निकलता है, इसका रंग लाल होता है। अभ्यास , २-नीचे लिखे वाक्यो में लुप्त शब्दो को प्रकट करो । | पुत्र, वहाँ न जाना । मै तेरी एक भी न सुनूंगा। कोई कोई जंतु पानी में तैरते हैं; जैसे, मछलियाँ। देखते हैं कि युद्ध दिन-दिन बढता जाता है। उसने कहा, मैं कल जाऊँगा । मैने बहुत दुख भोगा है, अब मुझे शरण दो । मेरी भी तो कुछ मानो ।, आप यहाँ कैसे ? कहाँ राजा भोज, कहाँ गगा तेली । रहिमन, अब वे तरु कहाँ, जिनकी छॉह गंभीर । हमारी उनकी नहीं बनती ।।