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(२) कर्मकारक | ३१३-कर्म-कारक का प्रयोग बहुधा सकर्मक क्रिया के साथ होता है और कक्ष-कारक के समान वह दो रूपों में आता है---(१) अप्रत्यय (२) प्रत्यये । । (१) अप्रत्यय कर्म-कारक से नीचे लिखे अर्थ सूचित होते हैं- ( ख ) मुख्य फर्मराजा ने ब्राह्मण को धन दिया। गुरु शिष्यको गणित पढ़ाता है । नट ने लोगो को खेल दिखाया । ( ख ) कर्म-पूर्ति-अहल्या ने गंगाधर को दीवान बनाया । मैंने चोर को साधु समझ लिया । राजा ब्राह्मण को गुरू मानता है। | ( ग ) सजातीय कर्म-सिपाही कई लड़ाइयाँ लड़ा। “सोओ सुख- निंदिया प्यारे ललन । किसान ने चोर को खूब मार मारी। वे ही यह नाच नचाते हैं। | (घ) अपरिचित वा अनिश्चित कर्म-मैंने शेर देखा है। पानी लाओं है लड़का चिट्ठी लिखता है। हम एक नौकर खोजते हैं । (३ } प्रत्यय कर्म-झारक बहुधा नीचे लिखे अर्थों में आता है- ( क ) निश्चित कर्म में-चोर ने लड़के को मारा ! हमने शेर को देखा है । लड़का चिट्ठी को पढ़ता है ।। | ( ख ) व्यक्तिवाचक, अधिकारवाचक, तथा सबंधवाचक कर्म में, जैसे, हम मोहन को जानते हैं। राजा ने ब्राह्मण को देखा । डाकू गॉव के मुखिया को खो जाते थे। | ( ग ) मनुष्यवाचक सर्वनामिक कर्म में-राजा ने उसे निकाल दिया। सिपाही तुमको पकड़ लेगा । लड़का किसी को देखता है। आप किसको खोजते हैं ? ( ३ ) करण कारक ३१३-- फरण-कारक से नीचे लिखे अर्थ पाए जाते मैं--- ( क ) करण अर्थात् साधन-नाक से सॉस लेते हैं। पैरों से चलते हैं। शिकारी ने शेर को बंदूक से मारा ।