पृष्ठ:संक्षिप्त हिंदी व्याकरण.pdf/१९९

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( १८७ ) |' इसके पश्चात् हिंदी भाषा के विकास का मध्यकाल आता है । इस युग में हिंदी की प्राचीन बोलियाँ बदलकर कमशः ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली हो गई । इसे धर्मकाल कह सकते हैं । इस काल की भाषा का रूप भक्त कवियों की रचनाओ से जाना जाता है । इस समय हिंदी का रूप स्थिर हो चला था । धर्मकाल के कवियों की कविता अधिकांश में हिंदी के उस रूप में हुई जिसे ब्रजभाषा कहते हैं । इस काल में विशेष कर कबीर साहब की भाषा ध्यान देने योग्य है । उनकी कविता में ब्रज- भाषा और हिंदी के उस रूप का मिश्रण है, जिसे बाद में लल्लू लाल ने ( सन् १८०३ में ) खड़ी बोली का नाम दिया । कबीर साहब की भाषा बहुत सहज है। कबीर साहब ने जो कुछ लिखा है वह लेखक की दृष्टि से नहीं, वरन् सुधारक की दृष्टि से लिखा है, इस लिए उनकी भाषा सरल और सरस है। उनकी कविता का उदाहरण यह है-- मनका फेरत जुग गया, गया न मनका फेर । कर का मन का छोड़ि दे, मन का मनफा फेर ।। इसके पश्चात् पंद्रहवीं शताब्दी में हिंदी भाषा पर विदेशी सत्ता का प्रभाव पड़ने लगा । इस समय मुसलमानी शासन होने के कारण हिंदी ६ में अरबी और फारसी शब्दों का उपयोग प्रचुरता से होने लगा । इसी काल में उर्दू भाषा का जन्म हुआ । उर्दू यथार्थ में कोई नई भाषा नहीं है। वह भाप दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जानेवाली खड़ी बोली और अरबी-फारसी शब्दों का मिश्रण है। उर्दू और हिंदी में वस्तुतः केवल लिपि का भेद है । इस काल से हिंदी भाषा मे अरबी- फारसी के कई शब्द ऐसे घुल-मिल गए कि उनका पहचानना कठिन हो गया है, जैसे, रोटी, तावा, हलवाई । उत्तर मध्यकाल के प्रमुख कवि सूरदास और तुलसीदास हैं । • सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य और कृष्ण-भक्त थे। कहते हैं कि इन्होने सवा लाख पद लिखे हैं, जिनका संग्रह सूरसागर' नामक ग्रंथ में है। ये