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रामस्वयंवर। ७६

तब ऐहैं दसरथ के नंदन रघुपति कोसलपाला॥४४२॥

(दोहा)

तिनके परसत चरन जुग, लहि आपन आकार।
ऐहै मेरे निकट पुनि, करि रामहिं सत्कार॥४४३॥

(सोरठा)

यहि बिधि दै मुनि साप, निज तिय को अरु सक को।
तजि आश्रम लहि ताप, गये हिमाचल करन तप॥४४४॥

(छंद चौथोला)

यह पूरव की कथा कही सब गौतम की अति प्यारी।
अब धनुधारी पगु धारी मुनिनारी आसु उधारी॥
विश्वामित्र-वचन सुनि रघुपति करि आगे मुनिराई।
गौतम आश्रम गये लपन जुत पीछे मुनि समुदाई ॥४४५॥
परत पाँँय पंकज रज तेहि थल गौतम साप नसानी।
प्रगट भई तहँ आसु अहल्या गुनमंदिर छविखानी॥
राम लपन मुनि लखे अहल्या चड़भागिनि तेहि जानी।
जब ते गौतम साप दियो तेहि तव ते अवै लखानी॥४४६॥
बार बार दूग वारि बहावत पुलकावलि तन माहीं।
नहि निकसत कछु प्रेम विबस मुख अनिमिष लखति तहाँहीं॥
सावधान है पुनि कर जोरी प्रभु के आगे ठाढ़ी।
अस्तुति करति अहल्या मुद भरि प्रेम भक्ति उर वाढ़ी॥४४७॥