रामस्वयंवर। अस कहि विश्वामित्र महामुनि वैठि पूर्व मुव-करिके। सकल अस्त्र के मंत्र राम को दियो सविधि मुद भरिकै। अस्त्र सस्त्र सव पाय राजसुत मुनिवर के पद वंदे । विश्वामित्र असीस दियो तव रहहु सदैव अनंदे ॥३६२॥ यहि विधि पाय अस्त्र अरु सस्त्रह प्रभु प्रसन्न मुख भयको परम पवित्र लोक पावन पद चलन पंथ मन दयऊ । निकसि ताडुका वन ते रघुपति निरख्या दूरि पहारा। ताके निकट मेघ इव मंडित देख्यो स्याम पतारा ॥३६३॥ तब अति मधुर पचन रघुनायक मुनिनायक से बोले। नाथ कौन बन स्याम मनोहर पादप अतिहि अमोले। सुनत वैन रघुकुलनायक के मुनिनायक मुदमानी। सो कानन की आदि अंत ते लागे कहन कहानी । ३६४॥ (दोहा) यह आश्रम संसार को, श्रमनासन रघुराज । वामन प्रभु परभाव ते, सिद्धाश्रम कृत काज ॥३६५॥ वामन प्रभु पदभक्ति वस, मैं इत करहुं निवास । का पंछहु जानहु सवै, रवि किन जान प्रकास ॥३६॥ (सवैया) याही लिये लला माँगि महीप सों, ल्याये लेवाय इतै दोउ भाई। आ4 इतै रजनीचर घोर, करैं उतपात महादुखदाई ॥ श्रीरघुराज सुनो रघुराज न, दूसरी आस तिहारी दोहाई। धीरधुरंधर बीर-सिरोमनि,देखिहैं। रावरे की मनुसाई॥६॥३
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