रामस्वयं पर।" [ दोहा]. मुनि कहि कथा विचित्र अति, सब अभिमत अभिराम । लषन राम अभिराम को, कोन्ह्यो मन विश्राम ॥३३४॥ संयन काल पुनि जानिक, तन साथरी बिछाय । सोये विश्वामित्र मुनि, लपन हुँ राम सावाय ॥३३५॥ . भानु आगमन ' जानिक, लालसिखा धुनि कोन । संवते आगे जगतपति, जागे राम 'प्रवीन ॥३३६॥ 1', ' छंद चौवाला ] कह्यो लषन कह उठहु लाल' अब भयो भोर सुखदाई । । इतने में 'मुनिनाथ उठे पुनि हरि हरि हरि मुख गाई ॥ राम बंदनं तवं निरखि गाधिसुत मंजुल वचन उचारे । सुरसरि सरजू संगम मजन गमनहुँ संग हमारे ॥३३७॥ . नित्य नेम निर्वाह उछाही पाश्रम आइ तुरंता । करी गमन को सपदि तयारी कह्यो मुनिन भतिवंता।। आनहुं नाव उतारन के हित उतरै गंग सुखारी । अस कहि तीर गये सुरसरि के मुनिजुत सुरभयहारी ॥३३८॥ कियो प्रणाम रामेलछिमनजुत सुरसरि सरजू काहीं । दच्छिन तीर जाय नउका ते चले विपिन पथ माहीं।। महाघोर वन सघन भयानक परत पंथ अंधियारी । देखि राम पूछ्यो मुनिवर से नाथ कौन वन भारी ॥३३॥ सुनि रघुपति के बचन गाधिसुत कही विहंसि वर वानी। सुनह बत्त रघुवंस विभूषन जासु- विपिन सुखदानी ।।
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