रामस्वयंवर। न ऐसी भानुवंसिन से पाइथे । भने रघुराज जो कल्यांन होर रावर को, तातो हम आये जस तैसे फिरि जाइये। मिथ्या- बादी हैके भूप भोग भोगिये अनूप, बंधुन समेत सुख संपति कमाइये ॥३०७॥ कहत सकोप विश्वामित्र के वचन ऐसे, डोलि उठीधराधराधरन समेत हैं । भागे दिगकुंजर दहन लगी दसों दिसा, देवता. पराने तजि नाक कै.निकेत हैं । भनै रघुराज बोरे बारिधि सुवेलन को, ढगये अनेक जल जंतुह अचेत हैं। हाय हाय माच्या विस्व धाय धाय मा सुर, काल विनु काहे प्रभुबांधै प्रलै नेत हैं ॥३०॥ . : दाहा] , ब्याकुल विस्व विलोकि सब, मुनि वशिष्ठ मतिधार । दसरथ से बोले बधन, हरन हेत जग पोर ।। ३०६ ॥ त्रिकालज्ञ यह गाधिसुत, कछु नहिं जो नहिं जान !" तिनके सँग रघुपति गमन, नृप संसय जनि मान ॥३१०॥ जदपि-निसाचर हनन में, समस्य. गाधिकुमार । - तव सुत के हित हेतु हति, जाचत जानि'उदार ॥३१॥ जदपि गाधिसुद संग में, नहिं दुख पैहैं राम: लपन.गमन सँग उचित है, मारग सेवन काम ॥३२॥ (छद चौबोला) --"सुनि वशिष्ठ के बचन धीर धरि घरनीपति पुनि भाष्यो। विप्र काज लगि माजु देहुँ मैं सरबस नहिं कछुरायो ।
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