रामस्वयंबर। पुनि तुरंग पर पुनि स्यंदन पर दसस्यंदन चढ़वाई। कुंवरन कर छुवाय संपति वहु दीनन दियो लुटाई ॥२२०॥ (दोहा) अन्नप्रासनी राम की, यहि विधि भई विसाल ॥ अवध प्रजा आनंद मगन, घसे सहित महिपाल ॥२२॥ (छंद चौवाला) जब ते अन्नप्रासनो है गै रंगनाथ के द्वारै। तव ते कुवर कढ़हि नित बाहर प्रमुदित प्रजाजोहारें। मनि मंदिर में रत्न पालने मंजुल रेसम डोरी । राजकुँवर तिनमें अति राजत करत चित्त की चोरी ॥२२२॥ नीलक वसन उढ़ाय चारहू बालक सेज सोहाहीं । ' मानहु पूरन चारि चंद्रमा जलद पटल मधि माहीं। साँझ समय भूपति नित आवत सुखी होतसुत देखी। अंक उठावत अति दुलरावत निज कहँ धनि जग लेखी ॥२२३॥ (दोहा) एक समय पयपान की. विलम मई बस काम । पद को अँगुठो निज मुखै, मेलि लियो तव राम ॥२२४॥ (कवित्त) 3कि उठे संकित विरंचि संच रंच नहीं, संकर ससंकित विचारै तेहि जाम हैं । छोनो छोड़िवे को चहैं दिग्गज दहंस मानि, हालखील माचि रहे देव धाम धाम हैं । भने रघुराज उठी तरल तरंग सिंधु, प्रेलै के पयोद धाये व्योम ठाम ठाम हैं।
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/५६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।