पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/४४

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रामस्वयंवर। २७ सुधासमान वानी कही, सावन सलिल जनुसूखत कियारी है। रघुराज मानो प्राची दिसि ते उदोत भयो सोक सर्वरी को नासि आनंद तमारी है ॥ १४ ॥ (सारठा) तब आयो सो काल, जो दुर्लभ बहु कल्प महैं । प्रगटे दसरथ-लाल, कौशल्या की सेज पर ॥१५॥ (कवित्त) सिद्धिन की सिद्धि दिगपालन की ऋद्धिवृद्धि, वेधा की समृद्धि सुरसदन झुरै परी । ब्रह्म की विभूति करतूति विश्व. फर्मा की, साहिबी सफल पुरहूत की लुरै परी ॥ रघुराज चैत चारु नौमो सित ससिवार, अवध अगार नव निशिहू धुरै परी। वैभव विकंठ ब्रह्मानंद की अपार धार कौशला की कोखि यकवारही फुरै परी ॥१५॥ शंभु औ स्वयंभुजाकी भृकुटि निहारै नित, लोकपाल जाके पदकंज सिर धारै हैं। देवऋषि ब्रह्मऋषि राजऋषि महाऋषि, महिमा विचारै पै न पावै नेकपा हैं। वानी को विलास है प्रकाश चारि वेदन को, विश्वसृष्टिपालन सँहार खेलवारै हैं । सोई रघुराल भूमि भार के उतारै हेतु, लोन्ह्यो अवतारै . अवधेश के अगारै हैं ॥१५२॥ कोसलपुर बाजै बधैया। रानि कौशला ढोटा जायो रघुकुल-कुसुद-जान्हैया॥ फूले फिरत समात नाहिं सुख मग मग लोग लोगैया।