रामस्वेचंबर। सिंधु और सौवीरहुँ सोरंठ जे भूपति रजधीरा । न्योत पठावहु सकल महीपन वाकी रहैं न वोरा ॥ ७ ॥ छोटे मोटे और भूप जे पृथिवो पीठ निवासी। सदल सवांधव आनहु तिनको सत्कारहु सुखरासी॥ सुनि गुरु-बचन सुमंत जथोचित भूपति न्योति बोलायो। जथाजोग भूपन के घर जन जथाजोग पठवायो॥ ८॥ जनक आदि जे मुख्य महीपति तिनके आपुहि जाई । सादर नेउति सदल निज संगहि ल्यायो अवध लेबाई ॥ गुरुशासन जस भयो ठानि तस सकल कर्म अधिकारी। कियो निवेदन सवै आइ ते लीजै नाथ निहारी ॥ ८१॥ अति प्रसन्न है गुरु वशिष्ठ तव पुनि पुनि कह्यो वुझाई। काह दियो न खेल झेल करि राख्यो मेल सदाई॥ गुरु वशिष्ठ दसरथ पहँ चलिकै कह्यो सुनहु महराजा। आये वाजिमेध मख देखन सर्व धरती के राजा॥ ८२॥ (दोहा) . . तुरत पधारहु यज्ञगृह, सुदिन पूछि नरनाथ । हानि कौनिहूं वस्तु नहि, सिद्ध करैं सुरनाथ ॥ ८ ॥ तब वशिष्ठ, शृङ्गी ऋपिहु, चरन बंदि महिपाल । सुदिन पूछि गमनत भये, मखशाला तेहि काल ॥४॥ यज्ञ कर्म आरंभ किय, शास्त्रेन के अनुसार। दीक्षित भयो भुआलमनि, सहित तीनिहूं दार ॥ ८५॥
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