पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२९३

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२७३
रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर। २७३ नित नित नव नव भोजन पान सुभूपन वसन अपारा॥ कछुक काल महँ प्रभु कपिनायक निसिचरनायक आन्यो। सील सकोच सनेह मित्रता संजुत वचन वखान्यो ॥६६५॥ अम अभिलाप होति मोरे मन कछु दिन कह दोउ मीतू । किष्किंधा लंका कह गवनी संजुत सैन्य अभीत् ॥ अस कहि सकल साज मंगवायो प्रभु दाहुँन कह दीन्यो । चले नाथ पहुंचावन दाहुँन भ्रातन संगहि लीन्यो ॥६॥ (दोहा) यहि विधि करि सव कपिन की, विदा भानुकुलभान । आय सभा बैठत भये, रघुपति कृपानिधान ॥६६७॥ राजराज रघुवंसमनि, राजत सहित समाज । पालक त्रिभुवन भवन बसि, छावत सुजल दराज ॥१६॥ राज्य करत रघुराज को, विते हजारन वर्प। सतजुग सम त्रेता भयो, रह्यो पूरि जग हर्प ॥६६॥ - - - - दुर्गाप्रसाद खत्री द्वारा भारत-जीवन प्रेस, काशी में मुद्रित