पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२८३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६७
रामस्वयंवर।

रामस्वयंवरः २६ भय काल्हि आवत अवधपुर कपिसैन्य जुत सुखसेत ॥१६ 'सुनि भरत सासन सत्रुहन लाखन सुदूत वुलाय। . . . 'दीन्यो निदेस अनंद भरि रघुनन्द दरस लुभायः॥: " भरि गयो नंदीग्राम जनगन तिहि निसा अवसेस। तब कहहिं सब अवराम कह अवराम कह अवधेस ॥ ६१७॥ '- :., (दोहा) पुरवासी भापत सकल चलहु भरत अतुराय । दिन देखे रघुपति चरन यक छन जुग सम जाय ॥६९८॥ नाय पादुका माथ मह लियो भरत तव धारि। चमर चलावत सत्रुहन साथहि चल्यो सिधारि ॥६१६। जरते राम प्रयाग ते भये सवार विमान। . तरते.कपि तिहि जान ते चले उड़त असमान ॥ ६२० ।। सोइ सोर सुनि पवनसुत को भरत सौ वैन । कपिदल सोर सुनात दंत मृपा वैन मम है न ।। ६२१ ।। . .. . . : . (चौपाई) . मोरे मन अस होत विचारा । तरत गोमती सैन्य अपारा ।। देखहु : दच्छिन नयन उठाई। धूरि पूरि नभ उड़ी,महाई ।। भावत अतिहि सवेग विमानां । धुधकार छावतो दिसाना ॥ यतनी सुनत पवनसुत वानी । अवधप्रजा अतिसय हरपानी। जिमि कपिफरक विमान अपारा तिमि कहि प्रजा लहै को पारा।। मनुज जूह धरनी परिपूरी रथ तुरंग मातंगहु भूरी। तव प्रभु निकट बालिसुत जाई। कीन्हो विनय सुनहु रघुराई ।।