रामस्वयंवरा (दोहा) सुन्यो वचन तुम भरत के, देख्यो सय व्यवहार । ताकी मन अमिलाप गुनि, पेख्यो सकल अकार ॥ ५६६ ॥ (चौपाई) पूछि सकल वृत्तांतहि जानी। ताकी रुख लीन्यो पहिचानी ॥ होय राज्यलोभी यदि भ्राता। तीन कहो मम आवनि वाता ।। आसुहि आय खवरि मुहिं देह । मैंनहिं तजिहाँ भरत सनेह ॥ करिही और ठौर को राजू । होय भरत कोसल महराजू ।। सुनि प्रभु चैन अंजनीनंदन । चल्यो अवध कहं करि पदवंदन । गगन पंथ कपि कुजर धायो । नंदिग्राम आरामहि आयो ।। धसो पवनसुत विप्रस्वरूपा । भरत कुटी कह चल्यो अनूपा ।। लख्यो दूर ते रघुपति भ्राता। राम प्रेम मूरति अवदाता ॥ राम राम मुख कढ़त निरंतर । विकल होत कवह परि अंतर ॥ निरखि भरत कह पवनकुमारा। गद्गद गर नहिं वचन उचारा॥ (दोहा) जस तलकै धरि धीर कपि, पाय परम अहलाद । । रामवंधु जीवहु सदा, दीन्ह्यो आसिरवाद ।। ६०५ ॥ (चौपाई) भरत प्रनाम कियो द्विज जानी। आकस्मात वह्यो द्वग पानी ॥ तहा पवनसुत वचन सुनाये । अति प्रिय खवर कहन इत आये। जिहि वियोगवस कृसित सरीराध्यावहुजाहि नयन भरि नीरा॥ जासु विरह यह दसा तिहारी। चौदह बरप जासु व्रत धारी।।
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रामस्वयंवर।