पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२४९

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२३३
रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर। २३३ चारिहु दुपारन प्रथम भापित पटै वानर सेन ॥४५२॥ चारों फाटक का युद्ध' . . . . . . (दोहा):: : - . जूथप जूथप सकल कपि, धाये करि किलकारि । मानहु एकहि छनहि मह, लंका लेत उखारि ॥४५३ ' : ... - (तोमर छंद) धाये' सुमर्कट वीर । चहुं ओर ते रनधीर ॥ . "मुख सकल करत पुकार । जय रामलपन उदार ॥४५॥ चढ़ि गये कोट कंगूर । लपटे दिवालन पूर॥ बहु धुसे नगर मैं झार । तह पसो हाहाकार ॥ ४५६॥ सुनिदशवदन अति कोपि।गृह चढ़योचितवन चोपि॥ वसुधा भई कपि रूप । संकित निशाचर-भूप.॥ ४५६॥ 'आसुहि सभामहँ आया दिय भटन हुकुम सुनाय॥ धावहु धरहु सब जाय । लीजो कपिन कहं खाय ॥ ४५७ ॥ • रावणं वचन सुनि कान । बाजे अनेक निसान ॥ · निकसे सु चारिहु द्वार । गहि अस्त्र शस्त्र अपार॥ ४५८॥ । (छंद भुजंगप्रयात) चढ़े राक्षसा मत्त मातंग केते। चढ़े हैं तुरंगाहि केते सचेते ।। इतकीसधाये किये घोरसोरासिलावृक्ष सोमारि कैसीसफोरा॥ उभय सैन्य कोसोभयोजुद्ध भारी न कीसौटना टरैरात्रिचारी॥ उड़ी धूरि गैपूरि त्यो आसमाने । न देखोपरै नयन आगेमहान।।