दिन दसक चीते जाय । पूंछेहु सकल कुललाय ॥
जज कुशल राम-विरोध । सोइ करी सकल प्रबोध ॥४३॥
सुनि वालिसुत के वैन । खल भन्यां सोनित नैन ।
गुनि दूत देत बचाय । नहि वसत जमपुर जाय ॥४४oll
का यालितसुत तब वैन । ते सत्य धर्महि ऐन।
परनारि चोरी कीन । सुर मुनिन अति दुख दीन ॥४४॥
[प्रोटक छंद]
दसमाल भन्यो तिहि काल सुनो । जा जाहिर विक्रम मोर गुनो।
जा रावग हैं दस वील नहीं । भुज को बल जानत देव सही ॥
तर अंगदहूँ हैसि बानि कयो । कहु लकहि रावण 'कौन रह्यो।
हिरण्याक्षहि कुंडल एक लयो । यलि जीतन सोइ पताल गयो ।
यक है यह राजहि जीति लियो । हमरे पितु पैयक रोष किया।
यक श्वेतहि द्वीप गयो चढिकै । सत्कार कियो रमनी बहिकै ।।
(दोहा)
बोल्यो दशकंधर तमकि, सो रावण ते जान ।
विरचि कुसुम निज सील के, पूज्यों देव इसान ॥४४५॥
(छंद हरिगीतिका)
मुख कहत लगति न लाज लघु नर सुजलाकरति बखान।
तब को अंगद मंदमति अवलौं न जान अजान ॥
जो कियो छत्र निछत्र यकइस बार भृगुकुल-भानु ।
रघुकुल कमल वल विपुल देखत गयो गोइ गुमानु ॥४४६॥
बूझेहन वूफत ते अबूझ न सूझ नि ज कल्यान ॥